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भूमिका
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वे उन्हें नियमानुसार दीक्षा प्रदान करते हैं। वे धन्य हैं जिन्हें ऐसी दीक्षा प्राप्त होती है। अत: दीक्षित व्यक्ति को अपने द्वारा गृहीत व्रतों एवं नियमों में, सहधर्मियों के प्रति वात्सल्यभाव में, तत्त्वज्ञान के अध्ययन में तथा गुरु के प्रति भक्ति में वृद्धि करते रहना चाहिये तथा दीक्षापूर्वक गृहीत लिङ्ग (वेश) की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । जिनमें उपर्युक्त लक्षण दिखलाई देते हैं उनकी दीक्षा ही सच्ची दीक्षा मानी जाती है। इस प्रकार क्रमशः सद्गुणों की वृद्धि होने से महासत्त्वशाली जीव का कल्याण होता है और अन्त में वह सभी कर्मों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है।
तृतीय पञ्चाशक
तृतीय पञ्चाशक में 'चैत्यवन्दनविधि' का प्रतिपादन किया गया है। वन्दन मुख्यत: तीन प्रकार का माना गया है - जघन्य वन्दन, मध्यम वन्दन और उत्कृष्ट वन्दन । चैत्यवन्दन के अधिकारी भी चार प्रकार के जीव ही हो सकते हैं - अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, देशविरत और सर्वविरत । इन चार जीवों के अतिरिक्त अन्य जीव चैत्यवन्दन के अधिकारी नहीं होते, यहाँ तक कि वे द्रव्यवन्दन भी नहीं कर पाते, क्योंकि द्रव्यवन्दन वे ही कर सकते हैं जो भाववन्दन की योग्यता रखते हैं। अपुनर्बन्धक से भिन्न सकृद्वन्धकादि जीवों में भाववन्दन की योग्यता नहीं होती है, क्योंकि उनका संसार बहुत होता है। लेकिन शास्त्रों में सकृद्धन्धकादि एवं अभव्य जीवों में द्रव्यवन्दन की सम्भावना मानी गई है। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि एक तरफ यह कहना कि सकृद्वन्धकादि जीव द्रव्य-वन्दना के अधिकारी नहीं हैं और दूसरी तरफ उनके द्वारा द्रव्य-वन्दना की सम्भावना को स्वीकार करना क्या सामान्य व्यक्ति को भ्रम में नहीं डाल देता। वस्तुत: यह भ्रम इसलिये होता है कि प्रधान और अप्रधान दृष्टि से द्रव्यवन्दन भी दो प्रकार का होता है। द्रव्यवन्दन करने वाले व्यक्ति का चैत्यवन्दन में उपयोग नहीं होता है। उसका उपयोगरहित अर्थात् चित्तवृत्ति को उसमें जोड़े बिना किया गया वन्दन वस्तुतः वन्दन नहीं है। लेकिन भाव-वन्दन करने वाला व्यक्ति द्रव्य-वन्दन और भाव-वन्दन - इन दोनों में ही उपर्युक्त लक्षणों से युक्त होता है, क्योंकि चैत्यवन्दन के प्रति उसके मन में सजगता होती है, यद्यपि चैत्यवन्दन के लक्षणों में भावप्रधान लक्षण को ही प्रमुखता दी गयी है। जिस प्रकार शरीर में अमृत के रस आदि धातु के रूप में परिणमित होने के पहले ही उसके प्रभाव से शरीर में पुष्टि, कान्ति आदि सुन्दर भाव दिखते हैं, उसी प्रकार अपुनर्बन्धक आदि जीवों में मोक्ष का हेतु शुभभाव रूप अमृत एक बार उत्पन्न होने पर निश्चित रूप से नए-नए शुभभाव उत्पन्न करता है। सही मायने
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