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भूमिका
विशुद्धि आदि गुण साधु के और दिग्विरति इत्यादि व्रत श्रावक के उत्तरगुण हैं । नवकार पोरसी, परिमुड्ड, एकासन, एकठाण, आयंबिल, अभत्त, अचित्त पानी आगार, चरिम, अभिग्रह तथा विकृति (विगय) - ये दस प्रत्याख्यान हैं, जो काल की मर्यादापूर्वक किये जाने के कारण कालिक प्रत्याख्यान कहलाते हैं। विधिपूर्वक ग्रहण, आगार, सामायिक, भेद, भोग, नियम-पालन और अनुबन्ध - ये सात द्वार हैं, जिनके आधार पर कालिक प्रत्याख्यान की विधि बतायी जाती है -
१. ग्रहणद्वार - उचित गुरु के पास उचित अवसर पर विनय एवं उपयोग से गुरु द्वारा बोले गए पाठ को स्वयं बोलते हुए ग्रहण करना ग्रहणद्वार कहलाता है।
२. आगारद्वार - आगार अर्थात् अपवाद या छूट । प्रत्याख्यान लेते समय अपवाद इसलिये रखे जाते हैं ताकि विशेष परिस्थितिवश भंग का दोष न लगे। आगारद्वार के अन्तर्गत कालिक प्रत्याख्यान में प्रत्येक के लिये अलग-अलग अपवादों का उल्लेख होता है।
(क) नवकार - सूर्योदय होने के ४८ मिनट पश्चात् नवकार गिनकर पूर्ण हो जाने तक आहार का त्याग करना । सूर्योदय के बाद दो घड़ी पूर्ण होना और नवकार मंत्र गिनकर दोनों को ही ग्रहण किया जाता है तभी प्रत्याख्यान पूरा होता है।
(ख) पोरिसी(पौरुषी)- पुरुष के शरीर के बराबर छाया जिस समय हो, वह काल पौरुषी कहलाता है, अर्थात् सूर्योदय के बाद दिन का एक-चौथाई भाग सम्पन्न हो जाने पर पुरुष की छाया उसके शरीर की लम्बाई के बराबर हो जाती है, उसी समय को ही पौरुषी या प्रहर कहते हैं ।
_(ग) परिमुड-अवड - सूर्योदय से दोपहर तक आहार का त्याग करना परिमुड्ड प्रत्याख्यान एवं सूर्योदय से तीन प्रहर तक आहार का त्याग अवड कहलाता है।
(घ) एकासण-बियासण - एक ही स्थान पर बैठकर एक ही बार भोजन करना एकासन कहलाता है और एक ही आसन पर बैठकर दो बार भोजन करना बियासण है।
(ङ) एकठाण - एक ही स्थान पर बैठकर भोजन करना एकठाण होता है । इसमें मुँह और हाथ के अतिरिक्त कोई अंग नहीं हिलता है एवं चौविहारी होता है। वहीं एकासन में दूसरे अंग हिलते हैं तथा वह तिविहारी भी होता है।
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