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________________ Ixiv भूमिका है - सम्यक्त्वादि व्रतों के पालन हेतु उपाय, रक्षण, ग्रहण, प्रयत्न और विषय आदि पाँच बातों पर श्रावक को विशेष ध्यान देना चाहिए। जिस प्रकार कुम्हार के द्वारा चक्र के किसी एक भाग को चलाने से पूरा चक्र घूमता है उसी प्रकार यहाँ सम्यक्त्व और अणुव्रतों का निरूपण करने से उनकी प्राप्ति के उपाय आदि का भी सूचन हो जाता है। उपर्युक्त श्रावक धर्मों में पाँच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों का पालन प्रायः जीवनपर्यन्त होता है जबकि शिक्षाव्रतों का पालन थोड़े समय के लिये किया जाता है । तात्पर्य है अणुव्रत और गुणव्रत जीवन में एक बार ग्रहण किये जाते हैं और उनका पालन जीवनपर्यन्त करना होता है, जबकि शिक्षाव्रत बार-बार ग्रहण किये जाते हैं और उनका अनुपालन एक सीमित समय के लिये होता है । इस पञ्चाशक में अणुव्रतों, गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों के अतिरिक्त भी अन्य कुछ सामान्य आचार-नियमों पर भी प्रकाश डाला गया है, जैसे - जहाँ साधुओं का आगमन होता हो, समीप में जिनमन्दिर हो तथा आसपास सहधर्मी श्रावकों का निवास हो, ऐसे स्थान पर ही श्रावक को निवास करना चाहिये। श्रावक के कुछ प्रात:करणीय आचरण इस प्रकार हैं - प्रात: नवकार मंत्र का जाप करते हुए जागना, मैं अणुव्रती श्रावक हूँ, ऐसा विचार कर अपने आचार-नियमों का स्मरण करने के पश्चात् दैनन्दिन क्रियाओं से निवृत्त होना, फिर विधिपूर्वक जिनप्रतिमा की पूजा करना, जिनमन्दिर जाकर जिनेन्द्रदेव का सत्कार करना, चैत्यवन्दन करना, गुरु के समीप प्रत्याख्यान करना, गुरु से आगम का श्रवण करना, तत्पश्चात् उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछना, बीमारी आदि होने पर ओषधि की व्यवस्था करना, शास्त्र के विरुद्ध व्यापार न करना, शास्त्रोक्त विधि से यथासमय भोजन ग्रहण करना, भोजनोपरान्त प्रत्याख्यान लेना, पुनः सन्ध्या को जिनमन्दिर जाकर जिनमूर्ति के समक्ष चैत्यवन्दन आदि करना, आगमों का श्रवण करना, वैयावृत्य द्वारा ग्लान साधुओं की थकान दूर करना, नमस्कार महामन्त्र का स्मरण करते हुए विधिपूर्वक सोना, यथाशक्ति मैथुन का त्याग करना तथा त्यागी श्रावकों के प्रति विशेष आदर-भाव रखना, अन्तिम प्रहर में रात्रि के बहुत कुछ शेष रहने पर कर्म, आत्मा आदि सूक्ष्म पदार्थों के स्वरूप का चिन्तन करना तथा शुभ अनुष्ठान में बाधक रागादि दोषों के निरोध में मन को लगाना आदि । अन्त में हरिभद्र कहते हैं कि इस प्रकार उपर्युक्त विधि से श्रावक-धर्म का अनुष्ठान करने वाले श्रावक का संसारवियोग के कारण चारित्र (दीक्षा) लेने का मनोभाव (परिणाम) उत्पन्न होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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