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भूमिका
Ixv
द्वितीय पञ्चाशक
द्वितीय 'जिनदीक्षाविधि' पञ्चाशक के अन्तर्गत मुमुक्षुओं के दीक्षाविधान पर प्रकाश डाला गया है। किसी व्यक्ति द्वारा अपने सगे-सम्बन्धियों से क्षमा-याचना करके गुरु की शरण में जाकर सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करते हुए समभाव की साधना करने की प्रतिज्ञा लेना जिनदीक्षाविधि कहलाती है। वस्तुत: दीक्षा मुण्डन संस्कार है, जिसमें मुख्यतः चित्त की दुर्वासनाओं का मुण्डन होता है, क्योंकि मिथ्यात्व, क्रोध आदि को दूर किये बिना व्यक्ति दीक्षा का अधिकारी नहीं हो सकता है । जैन धर्म में दीक्षा का अधिकारी वही हो सकता है जिसमें साधना के प्रति अनुराग हो तथा जिसने लोक-व्यवहार में निषिद्ध कार्यों का त्याग कर दिया हो। साधना के प्रति अनुराग की यह भावना कभी तो व्यक्ति में स्वत: ही उत्पन्न होती है तो कभी वैराग्योत्पादक धर्मोपदेश सुनकर या दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूपी मोक्ष-मार्ग का अनुसरण कर रहे व्यक्तियों को देखकर भी उत्पन्न होती है। लेकिन व्यक्ति जब तक पर-निन्दा, श्रेष्ठपुरुषों का तिरस्कार, धार्मिक आचार का उपहास एवं लोकविरुद्ध कार्यों का त्याग नहीं कर देता, तब तक वह दीक्षा का पूर्णतः अधिकारी नहीं हो सकता है। यहाँ पर कुछ विद्वानों ने अपने विरोणात्मक मत को प्रकट करते हुए विघ्नों के अभाव अथवा सद्भाव में भी अत्यन्त चैतसिक दृढ़ता को ही दीक्षा की योग्यता माना है। इसी प्रसंग में आचार्य हरिभद्र ने दीक्षा-सम्बन्धी कर्मकाण्ड का भी निरूपण किया है, जो हिन्दू तान्त्रिक साधना से पूर्णतः प्रभावित है। वे लिखते हैं - दीक्षा लेने से पूर्व दीक्षा-स्थल की शुद्धि आवश्यक होती है। अत: मुक्ता-शुक्ति के समान हाथ की मुद्रा बनाकर तथा वायुकुमार आदि देवताओं का मंत्रों द्वारा आह्वान कर, जलसिंचन से उनका सम्मान करते हुए ऐसी कल्पना करनी चाहिये कि वायुकुमार समवसरण की भूमि शुद्ध कर रहे हैं। तत्पश्चात् मेघकुमार द्वारा जल की वर्षा की भावना करनी चाहिये। तदुपरान्त बसन्त, ग्रीष्म आदि छ: ऋतुओं, अग्निकुमार आदि देवताओं का आह्वान करके धूपबत्ती जलानी चाहिये । वैमानिक, ज्योतिष्क एवं भवनवासी देवताओं का आह्वान कर समवसरण के रत्न, सुवर्ण और रौप्य (चाँदी) जैसे रंग वाले तीन प्राकार बनाने चाहिये, क्योंकि भगवान् के समवसरण में वैमानिक देवताओं द्वारा अन्तर, मध्य और बाह्य - ये तीन प्राकार क्रमशः रत्न, सुवर्ण और चाँदी के बनाए जाते हैं। इसके बाद व्यन्तरदेवों का आह्वान करके उन प्राकारों के द्वारादि के तोरण, पीठ, देवछन्द, पुष्करिणी आदि की रचना की जाती है। जिस प्रकार समवसरण में स्वयं भगवान् विराजित होते हैं, उसी प्रकार यहाँ चतुर्दिशाओं में जिनेन्द्रदेव के बिम्बों की उत्कृष्ट चन्दन के ऊपर
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