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भूमिका
Ixiii
आगमानुसार सम्यक्त्व के साथ-साथ श्रावकोचित व्रतों का पालन करना ही श्रावक का कर्तव्य है, किन्तु वह श्रावकोचित व्रतों का पालन कभी कर पाता है तो कभी नहीं कर पाता । व्रतों का अनुपालन चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम के होने पर होता है, जबकि सम्यक्त्व की प्राप्ति दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम के होने पर होती है । दर्शनमोह के उपशम, क्षय या क्षयोपशम के पश्चात् चारित्रमोह का भी क्षयोपशम आदि हो, यह आवश्यक नहीं है। अत: सम्यक्त्व के साथ श्रावक, व्रतों का पालन कभी कर पाता है और कभी नहीं कर पाता है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि दर्शनमोह के क्षयोपशम के तुरन्त बाद चारित्रमोह का क्षयोपशम क्यों नहीं होता है ? परिणाम अर्थात् मनोभावों के भेद के कारण ऐसा होता है। चारित्रमोह के क्षयोपशम के लिये दर्शनमोह के क्षयोपशम की अपेक्षा विशेष मनोभावों या परिणामों की आवश्यकता होती है। इसलिए जब तक ऐसे विशेष मनोभाव या परिणाम नहीं आएँगे, चारित्रमोह का क्षयोपशम नहीं होगा।
अणुव्रत श्रावकों के लिये संसार-सागर को पार करने के लिये नौका के समान हैं । उनको पालन करने का भाव श्रावक में तब आता है, जब सम्यक्त्व-प्राप्ति के बाद मोहनीय आदि सात कर्मों की काल-स्थिति दो सौ नौ पल्योपम जितनी शेष रहती है। साधुओं के महाव्रत की अपेक्षा श्रावक के व्रत सीमित या आंशिक होते हैं, इसलिये उन्हें अणुव्रत कहा जाता है । स्थूलप्राणातिपातविरमण, स्थूलमृषावादविरमण, स्थूलअदत्तादानविरमण, परस्त्री-गमनविरमण (स्वदारसंतोष व्रत) तथा स्थूलपरिग्रहविरमण - ये पाँच अणुव्रत हैं। इन अणुव्रतों की रक्षा के लिये गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों का विधान किया गया है। गुणव्रत मुख्यत: तीन हैं - दिशापरिमाण व्रत, भोगोपभोगपरिमाण व्रत तथा अनर्थदण्डविरति । अणुव्रतों की साधना के लिए जिन विशेष गुणों की आवश्यकता होती है, उन्हें गुणव्रत कहा जाता है। शिक्षाव्रत चार हैं - सामायिक व्रत, देशावकाशिक व्रत, पौषधोपवास व्रत तथा अतिथिसंविभाग व्रत । शिक्षा का अर्थ होता है - अभ्यास । जिस प्रकार विद्यार्थी पुनः-पुन: विद्या का अभ्यास करता है, उसी प्रकार श्रावक को भी कुछ व्रतों का पुनः-पुन: अभ्यास करना पड़ता है। इसी अभ्यास के कारण इन व्रतों को शिक्षाव्रत कहा गया है । व्रत-ग्रहण कर लेने के पश्चात् श्रावक के आचरण में शिथिलता आने लगती है, जिसके कारण वह दोषयुक्त हो जाता है। फलतः व्रत से च्युत होने का भय बना रहता है। अतः सम्यक्त्वादि व्रतों के वर्णन के साथ-साथ इस प्रथम पञ्चाशक में उनके अतिचारों का भी विस्तार से वर्णन आया है। कहा गया
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