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________________ भूमिका जीवन को पवित्र और निर्मल बनाने वाले पूर्व मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों की विवेचना की गयी है। इस पर मुनिचन्द्रसूरि ने टीका लिखी है। उपदेशपद इस ग्रन्थ में कुल १०४० गाथाएँ हैं। इस पर मुनिचन्द्रसूरि ने सुखबोधिनी टीका लिखी है। आचार्य ने धर्मकथानुयोग के माध्यम से इस कृति में मन्द बुद्धि वालों के प्रबोध के लिए जैन धर्म के उपदेशों को सरल लौकिक कथाओं के रूप में संगृहीत किया है। मानव पर्याय की दुर्लभता एवं बुद्धि चमत्कार को प्रकट करने के लिये कई कथानकों का ग्रन्थन किया है। मनुष्य-जन्म की दुर्लभता को चोल्लक, पाशक, धान्य, द्यूत, रत्न, स्वपन, चक्रयूप आदि दृष्टान्तों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। पंचवस्तुक ( पंचवत्थुग ) आचार्य हरिभद्र की यह कृति प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें १७१४ पद्य हैं जो निम्न पाँच अधिकारों में विभक्त हैं - १. प्रव्रज्याविधि के अन्तर्गत २२८ पद्य हैं। इसमें दीक्षासम्बन्धी विधि-विधान दिये गए हैं। २. नित्यक्रिया सम्बन्धी अधिकार में ३८१ पद्य हैं । यह मुनिजीवन के दैनन्दिन प्रत्ययों सम्बन्धी विधि-विधान की चर्चा करता है। ३. महाव्रतारोपण विधि के अन्तर्गत ३२१ पद्य हैं। इसमें बड़ी दीक्षा अर्थात् महाव्रतारोपण विधि का विवेचन हुआ है, साथ ही इसमें स्थविरकल्प, जिनकल्प और उनसे सम्बन्धित उपाधि आदि के सम्बन्ध में भी विचार किया गया है। चतुर्थ अधिकार में ४३४ गाथाएँ हैं। इनमें आचार्य-पद स्थापना, गण-अनुज्ञा, शिष्यों के अध्ययन आदि सम्बन्धी विधि-विधानों की चर्चा करते हुए पूजा-स्तवन आदि सम्बन्धी विधि-विधानों का निर्देश इसमें मिलता है। पञ्चम अधिकार में सल्लेखना सम्बन्धी विधान दिये गए हैं । इसमें ३५० गाथाएँ हैं। इस कृति की ५५० श्लोक परिमाण शिष्यहिता नामक स्वोपज्ञ टीका भी मिलती है। वस्तुत: यह ग्रन्थ विशेष रूप से जैन मुनि-आचार से सम्बन्धित है और इस विधा का यह एक आकर ग्रन्थ भी कहा जा सकता है। श्रावकप्रज्ञप्ति (सावयपण्णत्ति) ४०५ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध यह रचना श्रावकाचार के सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। ऐसा माना जाता है कि इसके पूर्व आचार्य उमास्वाति ने भी इसी नाम की एक कृति संस्कृत भाषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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