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भूमिका
जैन परम्परा में भी बौद्धों के न्याय सम्बन्धी मन्तव्यों के अध्ययन की परम्परा का विकास हुआ है ।
धर्मसंग्रहणी
यह हरिभद्र का दार्शनिक ग्रन्थ है । १२९६ गाथाओं में निबद्ध इस ग्रन्थ में धर्म के स्वरूप का निक्षेपों द्वारा निरूपण किया गया है। मलयगिरि द्वारा इस पर संस्कृत टीका लिखी गयी है। इसमें आत्मा के अनादि निधनत्व, अमूर्त्तत्व, परिणामित्व, ज्ञायक-स्वरूप, कर्तृत्व- भोक्तृत्व और सर्वज्ञ-सिद्धि का निरूपण किया गया हैं ।
लोकतत्त्वनिर्णय
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लोकतत्त्वनिर्णय में हरिभद्र ने अपनी उदार दृष्टि का परिचय दिया है । इस ग्रन्थ में जगत् सर्जक-संचालक के रूप में माने गए की अनुचित चेष्टाओं की असभ्यता तथा लोक-स्वरूप की तात्त्विकता का विचार किया गया है । इसमें धर्म के मार्ग पर चलने वाले पात्र एवं अपात्र का विचार करते हुए सुपात्र को ही उपदेश देने के विधान की विवेचना की गयी है । दर्शनसप्ततिका
इस प्रकरण में सम्यक्त्वयुक्त श्रावकधर्म का १२० गाथाओं में उपदेश संगृहीत है । इस ग्रन्थ पर श्री मानदेवसूरि की टीका है ।
ब्रह्मसिद्धिसमुच्चय
आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित इस संस्कृत ग्रन्थ के कुल ४२३ पद्य ही उपलब्ध हैं । आद्य पद में महावीर को नमस्कार कर ब्रह्मादि की प्रक्रिया, उसके अनुसार जताने की प्रतिज्ञा की है । इस ग्रन्थ में सर्वधर्मों का समन्वय किया गया है। यह ग्रन्थ अपूर्ण प्राप्त होता है ।
सम्बोधप्रकरण
१५९० पद्यों की यह प्राकृत रचना बारह अधिकारों में विभक्त है । इसमें गुरु, कुगुरु, सम्यक्त्व एवं देव का स्वरूप, श्रावकधर्म और प्रतिमाएँ, व्रत, आलोचना तथा मिथ्यात्व आदि का वर्णन है । इसमें हरिभद्र के में जैन मुनि संघ में आये हुए चारित्रिक पतन का सजीव चित्रण है, जिसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं ।
युग
धर्मबिन्दुप्रकरण
५४२ सूत्रों में निबद्ध यह ग्रन्थ चार अध्यायों में विभक्त है । इसमें श्रावक और श्रमण-धर्म की विवेचना की गयी है। श्रावक बनने के पूर्व
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