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पञ्चाशकप्रकरणम्
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[एकोनविंश
आयतिजनक तप एवं आयइजणगो विण्णेओ णवरमेस सव्वत्थ । अणिगूहिय-बलविरियस्स होइ सुद्धो विसेसेणं ।। ३४ ॥ एवमायतिजनको विज्ञेयः केवलमेषः सर्वत्र । अनिगूहित-बलवीर्यस्य भवति शुद्धो विशेषेण ।। ३४ ॥
परमभूषण तप की तरह ही आयतिजनक तप में भी एक-एक दिन के अन्तर से बत्तीस आयम्बिल करना चाहिए। सभी धर्मकार्यों में बल और वीर्य को नहीं छिपाने वाले का यह तप विशेष रूप से शुद्ध होता है ।। ३४ ॥
सौभाग्यकल्पवृक्ष तप चित्ते एगंतरओ सव्वरसं पारणं च विहिपुव्वं । सोहग्गकप्परुक्खो एस तवो होइ णायव्वो ।। ३५ ।। दाणं च जहासत्तिं एत्थ समत्तीएँ कप्परुक्खस्स । ठवणा य विविहफलहरसंणामिय-चित्तडालस्स ।। ३६ ।। चैत्रे एकान्तरक: सर्वरसं पारणञ्च विधिपूर्वम् । सौभाग्यकल्पवृक्ष एष: तपो (विशेषो) भवति ज्ञातव्यः ।। ३५ ।। दानश्च यथाशक्ति अत्र समाप्तौ . कल्पवृक्षस्य । स्थापना च विविध-फलभर-सन्नामित-चित्रडालस्य ।। ३६ ।।
चैत्र महीने में एक-एक दिन के अन्तर में उपवास करना और पारणों में मुनियों को दान देकर सर्व विकृति वाला अर्थात् सरस भोजन विधिपूर्वक करना सौभाग्यकल्पवृक्ष तप है ।। ३५ ।।
यह तप पूर्ण होने पर शक्ति के अनुसार दान करना चाहिए और विविध फलों के भार से झुकी हुई विविध शाखाओं वाले सुन्दर कल्पवृक्ष की सुनहरे चावलों आदि से रचना करनी चाहिए ॥ ३६ ।।
. मुग्ध जीवों को इससे लाभ एए अवऊसणगा इट्ठफलसाहगा व सट्ठाणे । अण्णत्थजुया य तहा विण्णेया बुद्धिमंतेहिं ।। ३७ ।। एतानि अवजोषणकानि इष्टफलसाधकानि स्वस्थाने । अन्वर्थयुक्तानि च तथा विज्ञेयानि बुद्धिमद्भिः ॥ ३७ ।। इन तपों की आराधना लौकिक आकांक्षाओं वाले मुग्ध-जीवों को इष्ट
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