________________
एकोनविंश ]
तपोविधि पञ्चाशक
फल देती है और ये तप सार्थक नाम वाले होते हैं, बुद्धिमानों को इसे जानना चाहिये । (तपों के नामों का अर्थ २८वीं गाथा में बतला दिया गया है) ।। ३७ ।। इन्द्रियजय आदि तपों का निर्देश
इंदियविजओऽवि तहा कसायमहणो य एमादओऽवि णेया तहा तहा
इन्द्रियविजयोऽपि तथा
कषायमथनश्च
योगशुद्धिः ।
एवमादयोऽपि ज्ञेया तथा तथा पण्डितजनात् ॥ ३८ ॥
इन्द्रिय-विजय, कषाय- मथन, योग-शुद्धि आदि अन्य भी तप हैं। किस
तप की क्या विधि है और कौन सा तप कितना करना है ? इसे अनुभवी लोगों से जान लेना चाहिए । इन्द्रिय - विजय और कषाय-मथन तपों का अर्थ उनके नाम के अनुसार प्रसिद्ध है। मन, वचन और काय का व्यापार जिससे शुद्ध बनता है वह योग-शुद्धि तप है। इन तपों का स्वरूप आचरण से जान लेना चाहिए, जो इस प्रकार हैं इन्द्रियविजय में एक इन्द्रिय का आश्रय लेकर पुरिमड्ड अर्थात् प्रथम
-
दो प्रहर के लिए भोजन-पानी का त्याग, एकाशन, निर्विकृति अर्थात् नीरस भोजन, आयम्बिल और उपवास • इन पाँच तपों की एक ओली (श्रेणी) करनी चाहिए। इसी प्रकार शेष चार इन्द्रियों का आश्रय लेकर एक-एक ओली (श्रेणी) करनी चाहिए | इस प्रकार इन्द्रिय-विजय तप में २५ दिन लगते हैं। कषाय-मथन तप में एक कषाय का आश्रय लेकर एकाशन, नीवी, आयम्बिल और उपवास इन चार तपों की एक ओली (श्रेणी) करनी चाहिए। इसी प्रकार शेष कषायों के लिए एक-एक ओली (श्रेणी) करनी चाहिए। इस प्रकार इसमें सोलह दिन लगते हैं। योग- शुद्धि तप में नीवी, आयम्बिल और उपवास इन तीन की एक ओली (श्रेणी) और ऐसी तीन श्रेणियाँ तीन योगों (मनोयोग, वाग्योग और काययोग) के लिए करनी चाहिए। इस प्रकार इसमें नौ दिन लगते हैं।
――――――
३४७
जोगसुद्धीए । पंडियजणाओ ॥ ३८ ॥
-
अष्टकर्मसूदनतप, तीर्थङ्करमातृकातप, समवसरणतप, नन्दीश्वरतप, पुण्डरीकतप, अक्षयनिधितप, सर्वसौख्यसम्पत्तिप्रदातातप आदि भी तप हैं, जिनकी विधि निम्न है अष्टकर्मसूदनतप में क्रमशः उपवास, एकाशन, मात्र अन्न का एक दाना लेकर चौविहारतप, एकदत्ति, निर्विकृति, आयम्बिल, आठ कौर का एकाशन या आयम्बिल इन आठ तपों की एक ओली (परिपाटी), ऐसी आठ ओली (परिपाटी) करना । यह तप चौंसठ दिनों में पूरा होता है। भाद्रपद महीने में तीर्थङ्कर की माता की पूजापूर्वक सात एकाशन करने से तीर्थङ्करमातृका तप होता है । भाद्रपद महीने में ही समवसरण की पूजा के साथ एकाशन, नीवी, आयम्बिल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org