________________
तपोविधि पञ्चाशक
सर्वाङ्गसुन्दर तप
आयामं ।
अड्डववासा एगंतरेण विहिपारणं च सव्वंगसुंदरो सो होइ तवो सुक्कपक्खम्मि ॥ ३० ॥
एकोनविंश ]
खमयादभिग्गहो इह सम्मं पूया य दाणं च जहासत्तिं जइदीणाईण
वीयरागाणं ।
विण्णेयं ॥ ३१ ॥
आयामम् ।
अष्टावुपवासा एकान्तरेण विधिपारणञ्च सर्वाङ्गसुन्दरं तद्भवति तपः
शुक्लपक्षे ॥ ३० ॥
क्षमताद्यभिग्रह इह सम्यक् पूजा च वीतरागाणाम् । दानञ्च यथाशक्ति यतिदीनादीनां विज्ञेयम् ।। ३१ ।।
शुक्ल पक्ष में एक-एक दिन के अन्तर में आठ उपवास करना और प्रत्येक उपवास के पारणे में विधिपूर्वक आयम्बिल करना सर्वांगसुन्दर तप है ॥ ३० ॥ इस तप में क्षमा, नम्रता, सरलता आदि का नियम, जिन-पूजा और सामर्थ्य के अनुसार श्रमणों एवं दीन-दु:खियों आदि को दान देना चाहिए ।। ३१ ।। निरुजशिख तप
एवं चिय निरुजसिहो णवरं सो होइ किण्हपक्खमि । गिलाणतिगिच्छाभिग्गहसारो
तह य
एवमेव निरुजशिखः केवलं स भवति च ग्लान- चिकित्साभिग्रहसारो
तथा
३४५
मुव्व ॥ ३२ ॥
कृष्णपक्षे ।
ज्ञातव्यः || ३२ ॥
सर्वाङ्गसुन्दर तप की भाँति ही निरुजशिख तप भी होता है। लेकिन इसे (शुक्लपक्ष के बजाय ) कृष्णपक्ष में करना होता है। इसमें रोगी की सेवा करने का नियम लेना होता है ॥ ३२ ॥
परमभूषण तप
बत्तीसं आयामं एगंतरपारणेण सुविसुद्धो । तह परमभूसणो खलु भूसणदाणप्पहाणो य ॥ ३३ ॥ द्वात्रिंशदाचामाम्लानि एकान्तरपारणेन सुविशुद्धानि ।
तथा परमभूषणः खलु भूषणदानप्रधानश्च ॥ ३३ ॥
Jain Education International
परमभूषण तप में एक-एक दिन के अन्तर से बत्तीस निर्दोष आयम्बिल करना चाहिए और जिनप्रतिमा को तिलक, आभूषण आदि चढ़ाना चाहिए ।। ३३ ।।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org