SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ एकोनविंश बुद्धिमान लोग मोक्ष के लिए ही आगमोक्त विधि से तप करते हैं ।। २६ ।। यह तप चारित्र का भी फल देता है एवं पडिवत्ती एत्तो मग्गाणुसारिभावाओ । चरणं विहियं बहवो पत्ता जीवा महाभागा ।। २७ ।। सव्वंगसुंदरो तह णिरुजसिहो परमभूसणो चेव । आयइजणगो सोहग्गकप्परुक्खो तन्नोऽवि ।। २८ ।। पढिओ तवोविसेसो अण्णेहिवि तेहि तेहिं सत्थेहिं । मग्गपडिवत्तिहेऊ हंदि विणेयाणुगुण्णेणं ।। २९ ।। एवं प्रतिपत्त्या तो मार्गानुसारिभावात् । जीवा महाभागाः ॥ २७ ॥ चरणं विहितं बहवः प्राप्ता सर्वाङ्गसुन्दरस्तथा निरुजशिख: परमभूषणश्चैव । आयतिजनक: सौभाग्यकल्पवृक्षः तथा अन्योऽपि ॥ २८ ॥ पठितस्तपोविशेषोऽन्यैरपि तेषु तेषु शास्त्रेषु । हंदि विनेयानुगुण्येन ।। २९ ।। मार्गप्रतिपत्तिहेतुः कुशल अनुष्ठानों में विघ्न न आवे इसके लिए साधर्मिक देवताओं की तप रूप आराधना से और २६वीं गाथा में कथित कषायादि निरोधरूप तप से, मार्गानुसारी- भाव (मोक्षमार्ग के अनुकूल भाव ) पाकर बहुत से पुण्यशाली जीवों ने आप्तोपदिष्ट- चारित्र को प्राप्त किया है ॥ २७ ॥ ३४४ पञ्चाशकप्रकरणम् दूसरे कुछ आचार्यों ने अपने भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में सर्वांगसुन्दर, निरुजशिख, परमभूषण, आयतिजनक और सौभाग्यकल्पवृक्ष आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के तपों का विवेचन किया है। ये तप भी जिनशासन में नव- प्रविष्ट जीवों की योग्यता के अनुसार मोक्षमार्ग स्वीकार करने के कारण हैं। क्योंकि कोई जीव ऐसा भी हो सकता है जो प्रारम्भ में अभिष्वंग अर्थात् संसार सुख की इच्छा से जिनधर्म में प्रवृत्त होता है, किन्तु बाद में अभिष्वंगरहित अर्थात् लौकिक आकांक्षाओं से रहित मोक्षमार्ग की इच्छा वाला बन जाता है। इसलिए ऐसे जीवों के लिए यह तप मोक्ष प्राप्त कराने वाला बनता है। जिस तप से सभी अंग सुन्दर बनें वह सर्वांगसुन्दर तप है। इसी प्रकार जिससे रोग नष्ट होते हैं वह निरुजशिख-तप, जिससे उत्तम आभूषण मिलते हैं वह परमभूषण - तप, जिससे भविष्य में इष्टफल मिले वह आयतिजनक और जिससे सौभाग्य मिलता हो वह सौभाग्यकल्पवृक्ष तप है ।। २८-२९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy