SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकोनविंश] तपोविधि पञ्चाशक ३३५ २. विनय- जिससे मान कषाय को दूर किया जाये वह विनय तप है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मन, वचन, काय और उपचार – ये विनय के सात भेद हैं : (क) ज्ञान विनय : मति आदि ज्ञान और ज्ञानों से युक्त ज्ञानी व्यक्तियों के प्रति श्रद्धा, भक्ति, सम्मान, आगम में विहित अर्थों का चिन्तन और गुरु के पास उनका अध्ययन - ये ज्ञान विनय के पाँच प्रकार हैं। (ख) दर्शन विनय : जो दर्शन गुण में अधिक हैं, उनका आदर करना दर्शन-विनय है। दर्शन-विनय के दो भेद हैं - शुश्रूषा और अनाशातना। शुश्रूषा के दस भेद हैं - १. सत्कार – स्तुति आदि करना, २. अभ्युत्थान - कोई बड़ा (रत्नाधिक) आये तो खड़े हो जाना आदि, ३. सम्मान - वस्त्रादि देना, ४. आसनाभिग्रह – कोई बड़ा आये तो बैठने के लिए आसनादि देना, ५. आसनानुप्रदान - उनकी इच्छानुसार आसन को स्थानान्तरित करना, ६. कृतिकर्म - वन्दन करना, ७. अंजलिग्रह - हाथ जोड़कर सिर से लगाना, ८. आगच्छदनुगम - कोई बड़ा आये तो आगे बढ़कर अगवानी करना, ९. स्थितपर्युपासन - बैठे हों तो पैर दबाना आदि, १०. गच्छदनुगमन - जाने लगें तो कुछ दूर तक साथ जाना। __ अनाशातना विनय के निम्न पन्द्रह भेद हैं - तीर्थङ्कर, धर्म, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, साम्भोगिक, क्रियावान अर्थात् श्रद्धाशील चरित्रवान व्यक्ति और पाँच ज्ञानों के धारक -- इन पन्द्रह की आशातना का त्याग कर भक्ति, सम्मान और प्रशंसापूर्वक उनका विनय करना । (ग) चारित्र विनय के अन्तर्गत सामायिक आदि पाँच चारित्रों की मन से श्रद्धा करना, काया से स्पर्शना (पालना) और वचन से प्ररूपणा करना - ये तीन भेद हैं। (घ-च) मन-वचन-कायविनय : मन, वचन और काय की अप्रशस्त वृत्तियों का निरोध करना और मन, वचन और काय की प्रशस्त वृत्तियों से आचार्य आदि का आदर, सम्मान, स्तुति आदि करना मन, वचन और काय का विनय है। (छ) उपचारविनय : विनय-व्यवहार का पालन करना । इसके निम्न सात भेद हैं - १. ज्ञान प्राप्ति या आभ्यासन - आज्ञापालन की इच्छा से सदा आचार्यादि के पास बैठना, २. छन्दोऽनुवर्तन - आचार्य की इच्छानुसार वर्तन (व्यवहार) करना, ३. कृतप्रतिकृति - कर्मनिर्जरा आदि की भावना से आचार्य की सेवा करना, ४. कारितनिमित्तकरण - आचार्य का श्रुतज्ञानादि देने का उपकार मानकर उनका विशेष आदर करना, ५. दुःखार्तगवेषणा – रोग आदि दुःखों को दूर करने का उपाय करना, ६. देशकालज्ञान – देशकाल के अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy