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[ एकोनविंश
आचार्यादि की आवश्यकताओं को समझकर उनकी सेवा करना, ७. सर्वत्रानुमति - कोई भी कार्य आचार्यादि की अनुमति से ही करना ।
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३. वैयावृत्य - व्यावृत्त अर्थात् भोजनादि लाकर देने रूप सेवा करना । सेवा की वृत्ति और सेवा के कार्य ही वैयावृत्य है। आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष, साधर्मिक, कुल, गण और संघ- इन दस की वैयावृत्य (सेवा) करना चाहिए।
४. स्वाध्याय
सु = अच्छी तरह, आ = मर्यादापूर्वक (काल आदि ज्ञानाचार का पालन करते हुए) अध्याय = अध्ययन करना, स्वाध्याय कहलाता है। इसके वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा ये पाँच भेद हैं। ५. ध्यान चित्त की एकाग्रता ध्यान कहलाती है। इसके आर्त्त, रौद्र, ये चार भेद हैं। इनमें से प्रथम दो भेद संसार के और अन्तिम
गण
धर्म और शुक्ल दो मोक्ष के कारण हैं, इसलिये अन्तिम दो ही ध्यान रूप तप हैं। ६. उत्सर्ग. त्याग करना । उत्सर्ग के द्रव्य और भाव ये दो भेद हैं और दोनों के पुनः चार-चार भेद हैं। द्रव्य उत्सर्ग के चार भेद ( प्रतिमाकल्प धारण करते समय गण का त्याग करना), देह (संलेखना में देह का त्याग करना), आहार (अशुद्ध आहार का त्याग करना) और उपधि (वस्त्रादि का त्याग करना) तथा क्रोधादि चार कषायों का त्याग करना ये चार भाव उत्सर्ग हैं।
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पञ्चाशकप्रकरणम्
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ये छह प्रकार के तप लोक में प्रत्यक्षतः तप रूप दिखलायी न देने के कारण आन्तरिक तप कहे जाते हैं। ये मोक्षप्राप्ति के आन्तरिक कारण हैं ।। ३ ।।
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प्रकीर्ण तप का स्वरूप
मुणेयव्वो । णेगभेउत्ति ॥ ४ ॥
एसो बारसभेओ सुत्तनिबद्धो तवो एयविसेसो उ इमो पइण्णगो तित्थयरणिग्गमाई सव्वगुणपसाहणं तवो होइ । भव्वाण हिओ णियमा विसेसओ पढमठाणीणं ॥ ५ ॥
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एतद् द्वादशभेदं सूत्रनिबद्धं तपो ज्ञातव्यम् । एतद्विशेषस्तु इदं प्रकीर्णकमनेकभेदमिति ॥ ४ ॥ तीर्थङ्करनिर्गमादि सर्वगुणप्रसाधनं तपो भवति । भव्यानां हितं नियमाद् विशेषतः प्रथमस्थानिनाम् ॥ ५ ॥
उपर्युक्त बारह प्रकार के तप शास्त्र में कहे गये हैं । इससे भिन्न भी कुछ
अन्य तप हैं, जिनका स्पष्ट उल्लेख सूत्र में नहीं है, फिर भी वे सूत्रविरुद्ध नहीं हैं,
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