________________
३३४
पञ्चाशकप्रकरणम
.
[एकोनविंश
लेकर छह महीने तक के लिए आहार का त्याग करना 'इत्वर' है।
२. ऊनोदरी - आवश्यकता से कम खाने के कारण पेट का न भरना ऊनोदरी है। इसके दो भेद हैं - द्रव्य और भाव। कम खाना द्रव्य-ऊनोदरी है। आगम में बत्तीस ग्रास अर्थात् कवल (कौर) का पूर्ण आहार माना जाता है। उसमें एक कौर भी कम खाने पर द्रव्य-ऊनोदरी तप होता है। इसके अनेक प्रकार होते हैं। कषायों का त्याग करना भाव-ऊनोदरी है।
. ३. वृत्तिसंक्षेप -भिक्षांचर्या में विशेष अभिग्रह या नियम लेना वृत्तिसंक्षेप है। वह निम्न है -
___ घृत आदि के लेपसहित या लेपरहित वस्तु ही लूँगा, इत्यादि नियम लेगा द्रव्य अभिग्रह है। अपने गाँव से, दूसरे गाँव से या अमुक घरों से ही भिक्षा लूँगा, यह क्षेत्र अभिग्रह है। दिन के प्रथम, मध्यम या अन्तिम प्रहर में ही भिक्षा लूँगा, यह काल अभिग्रह है। मूल भोजन में से जितना भोजन हाथ या चम्मच आदि में लिया गया हो अथवा थाली में रखा गया हो वही लूँगा अथवा गाते हुए या रोते हुए दे तो ही लूँगा, इत्यादि भाव अभिग्रह है।
४. रसत्याग - दूध, दही आदि सभी रसों का अथवा कुछ रसों का त्याग करना।
५. कायक्लेश - मर्यादा-अनुसार शरीर को कष्ट देना कायक्लेश है। वीरासन, उत्कटुकासन, गोदोहिकासन आदि आसनों में रहना; सर्दी, गर्मी, बरसात आदि सहना, केशों का लुंचन करना आदि कायक्लेश हैं।
६. संलीनता (निरोध करना) - इसके इन्द्रिय, कषाय, योग और विविक्तचर्या - ये चार भेद हैं। इनमें प्रथम तीन के अर्थ ज्ञात हैं। स्त्री, पशु, नपुंसक आदि से रहित निर्दोष एकांत स्थान में रहना विविक्तचर्या है। ये तप बाह्य जगत् में तप के रूप में दिखलायी देते हैं, इसलिए बाह्य तप कहलाते हैं ॥ २ ॥
आभ्यन्तर तप के भेद पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं उस्सग्गोऽविय अन्भिंतरओ तवो होइ ।। ३ ।। प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानमुत्सर्गोऽपि च आभ्यन्तरकं तपो भवति ।। ३ ।।
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और उत्सर्ग - ये छह आभ्यन्तर तप के भेद हैं।
१. प्रायश्चित्त - इसकी व्याख्या १६वें पञ्चाशक में की जा चुकी है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org