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________________ १८ माकल्पविधि पञ्चाशक पिछले पञ्चाशक में स्थित-अस्थित कल्प का विवेचन किया गया है। अब कल्प सामान्य के कारण प्रतिमाकल्प का प्रतिपादन करने हेतु मंगलाचरण करते हैं - मङ्गलाचरण णमिऊण वद्धमाणं भिक्खुपडिमाण लेसओ किंपि । वोच्छं सुत्ताएसा भव्वहियट्ठाएँ पयडत्थं ।। १ ।। नत्वा वर्धमानं भिक्षुप्रतिमानां लेशतः किमपि । वक्ष्ये सूत्रादेशाद् भव्यहितार्थाय प्रकटार्थम् ।। १ ।। भगवान् महावीर को प्रणाम करके भव्य जीवों के हितार्थ दशाश्रुतस्कन्धसूत्र के अनुसार भिक्षुप्रतिमाओं का स्वरूप संक्षेप में कहूँगा ।। १ ।। प्रतिमा की संख्या और स्वरूप बारस भिक्खूपडिमा ओहेणं जिणवरेहिँ पण्णत्ता । सुहभावजुया काया मासाईया जओ भणियं ।। २ ॥ द्वादश भिक्षुप्रतिमा ओघेन जिनवरैः प्रज्ञप्ताः । शुभभावयुताः कायाः मासादिका यतो भणितम् ।। २ ।। अर्हन्तों ने सामान्यतया मासिकी आदि बारह भिक्षु प्रतिमाएँ कही हैं। विशेषतया वज्रमध्या, यवमध्या, भद्रा, सप्तसप्तमिका आदि अनेक प्रतिमाएँ हैं। ये प्रतिमाएँ विशिष्ट क्रियावाले साधु का प्रशस्त अध्यवसाय रूपी शरीर हैं। विशेष : विशिष्ट क्रिया वाले शरीर से तथाविध गुणों का योग होता है, जिनके कारण प्रतिमाधारी साधु अन्य साधुओं की अपेक्षा प्रधान हो जाते हैं - इसे सूचित करने के लिए यहाँ शुभभाव युक्त साधु के शरीर को भी प्रतिमा कहा जाता है ।। २ ।। आवश्यक नियुक्ति में कही गयी प्रतिमाएँ . मासाइ सत्तंता पढमा - बिइतइय - सत्तराइदिणा । अहराइ एगराई भिक्खूपडिमाण बारसगं ॥ ३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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