SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चाशकप्रकरणम् [अष्टादश मासादयः सप्तान्ताः प्रथमाद्वितीया-तृतीया-सप्तरात्रिदिनानि । अहोरात्रिकी एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमानां द्वादशकम् ।। ३ ।। एक महीने से आरम्भ करके क्रमश: एक-एक महीने की वृद्धि से सात महीने तक कुल सात प्रतिमाएँ हैं, यथा - मासिकी, द्विमासिकी, त्रिमासिकी, चतुर्मासिकी, पञ्चमासिकी, षण्मासिकी, सप्तमासिकी। इसके बाद पहली, दूसरी और तीसरी (पहले की सात प्रतिमाओं को साथ लेकर गिनें तो आठवीं, नौवीं और दसवीं) - ये तीन प्रतिमाएँ सप्तरात्रिदिना अर्थात् सप्त दिवसीय हैं। ग्यारहवीं और बारहवीं क्रमश: अहोरात्रिकी अर्थात् एक दिवस-रात्रि की और रात्रि की (मात्र एक रात्रि की) हैं। इस प्रकार कुल बारह प्रतिमाएँ हैं ।। ३ ।। प्रतिमाधारण करने के लिए आवश्यक योग्यता पडिवज्जइ एयाओ संघयण - धिइजुओ महासत्तो । पडिमाउ भावियप्पा सम्मं गुरुणा अणुण्णाओ ।। ४ ।। गच्छे च्चिय णिम्माओ जा पुव्वा दस भवे असंपुण्णा । णवमस्स तइयवत्थू होइ जहण्णो सुयाहिगमो ।। ५ ॥ वोसट्ठ- चत्तदेहो उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी। एसण अभिग्गहीया भत्तं च अलेवडं तस्स ।। ६ ।। प्रतिपद्यत एताः संहननधृतियुतो महासत्त्वः । प्रतिमा भावितात्मा सम्यग् गुरुणा अनुज्ञात: ।। ४ ।। गच्छ एव निर्मातो यावत्पूर्वाणि दश भवेद् असम्पूर्णानि । नवमस्य तृतीयवस्तु भवति जघन्यः श्रुताधिगमः ।। ५ ।। व्युत्सृष्टत्यक्तदेह उपसर्गहो यथैव जिनकल्पी । एषणा अभिगृहीता भक्तं च अलेपकृतं तस्य ।। ६ ।। १. संहनन युक्त, २. धृतियुक्त (धैर्यवान्), ३. महासात्त्विक, ४. भावितात्मा, ५. सुनिर्मित, ६. उत्कृष्ट से थोड़ा कम दस पूर्व और जघन्य से नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु तक श्रुत का ज्ञानी, ७. व्युत्सृष्टकाय, ८. त्यक्तकाय, ९. जिनकल्पी की तरह उपसर्ग सहिष्णु, १०. अभिग्रह वाली एषणा लेने वाला, ११. अलेप आहार लेने वाला और १२. अभिग्रह वाली उपधि लेने वाला साधु ही गुरु से सम्यग् आज्ञा प्राप्तकर इन प्रतिमाओं को स्वीकार करता है। १. संहनन (संघयण) युक्त - प्रथम तीन संहननों में से किसी एक संहनन वाला साधु परीषह सहन करने में समर्थ होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy