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________________ [ सप्तदश मूलतः नाश हो जाता है। संज्वलन कषाय रूप माया से उत्पन्न अतिचार चारित्र का घातक नहीं है। अतः अतिचार हो तो भी अन्तिम जिन के साधुओं को सम्यक् चारित्र होता है ॥ ५० ॥ ३१२ पञ्चाशकप्रकरणम् एवं च संकिलिट्ठा माइट्ठाणंमि णिच्चतल्लिच्छा । आजीवियभयगत्था मूढा णो साहुणो णेया ॥ ५१ ॥ एवञ्च संक्लिष्टाः मातृस्थाने नित्यं तल्लिप्साः । आजीविकाभयग्रस्ताः मूढाः न साधवो ज्ञेयाः ।। ५१ ।। संज्वलन के अतिरिक्त अन्य कषायों का उदय होने पर साधुता नहीं होती है। इसलिए जो संज्वलन के अतिरिक्त अन्य कषायों के उदय से संक्लिष्ट चित्त वाले हैं, माया में सदैव तत्पर हैं, धनरहित होने के कारण आजीविका के भय से ग्रस्त हैं, पारलौकिक साधना से विमुख होकर इहलौकिक प्रतिबद्धता से मूढ हैं, वे वस्तुतः साधु नहीं हैं ।। ५१ ।। भावसाधु का स्वरूप संविग्गा गुरुविणया णाणी दंतिंदिया जियकसाया । भवविरहे उज्जुत्ता जहारिहं साहुणो होति ॥ ५२ ॥ संविग्ना गुरुविनता: ज्ञानी दान्तेन्द्रिया जितकपायाः । भवविरहे उद्युक्ता यथार्हं साधवो भवन्ति ॥ ५२ ॥ जो संसारभीरु हैं, गुरुओं के प्रति विनीत हैं, ज्ञानी हैं, जितेन्द्रिय हैं, जिन्होंने कषायों को जीत लिया है, संसार से विमुक्त होने में यथाशक्ति तत्पर रहते हैं, वे वस्तुतः (भाव) साधु हैं ॥ ५२ ॥ ॥ इति स्थितास्थितकल्पविधिर्नाम सप्तदशं पञ्चाशकम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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