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सप्तदश ]
स्थितास्थितकल्पविधि पञ्चाशक
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इसी प्रकार चारित्र में स्थित जीवों के द्वारा विस्मृति आदि के कारण स्खलना हो जाती है और अतिचार लग जाता है, किन्तु तीव्र संक्लेश न होने के कारण चारित्र रूप परिणाम (स्वभाव) का नाश नहीं होता है ।। ४७ ।।
__ वक्रजड़ जीव भी चारित्रवान् होते हैं चरिमाणवि तह णेयं संजलण-कसाय-संगयं चेव । माइट्ठाणं पायं असइंपि हु कालदोसेणं ।। ४८ ।। इहरा उ ण समणत्तं असुद्धभावाउ हंदि विण्णेयं । लिंगंमिवि भावेणं सुत्तविरोहा जओ भणियं ।। ४९ ।। सव्वेऽवि य अइयारा संजलणाणं तु उदयओ होति । मूलच्छेज्जं पुण होइ बारसण्हं कसायाणं ।। ५० ।। चरमाणामपि तथा ज्ञेयं संज्वलन-कषाय-संगतं चैव । मातृस्थानं प्रायः असकृदपि खलु कालदोषेण ।। ४८ ।। । इतरथा तु न श्रमणत्वम् अशुद्धभावाद् हंदि विज्ञेयम् । लिंग एव भावेन सूत्रविरोधाद्यतो . भणितम् ।। ४९ ।। सर्वेऽपि च अतिचारा: संज्वलनानां तु उदयतो भवन्ति । मूलच्छेद्यं पुनर्भवति द्वादशानां कषायाणाम् ।। ५० ।।
जिस प्रकार प्रथम जिन के साधुओं का स्खलन उनके चारित्र का बाधक नहीं है, उसी प्रकार अन्तिम जिन के साधुओं का स्खलन भी काल के प्रभाव से होने के कारण चारित्र का बाधक नहीं है। क्योंकि वह अनेक बार प्राय: मातृस्थान अर्थात् माया रूप संज्वलन कषाय का सेवन करता है, न कि अनन्तानुबन्धी कषाय का।
मातृस्थान - माता स्त्री होती है। स्त्रियों का स्थान (आश्रय) मातृस्थान कहलाता है। स्त्रियाँ प्राय: माया करती हैं, इसलिए यहाँ मातृस्थान का अर्थ माया है ।। ४८ ।।
यदि माया अनन्तानुबन्धी कषाय सम्बन्धी हो तो वह व्यक्ति श्रमणत्व (साधुता) को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि वह अप्रशस्त अध्यवसाय है। अतः उनमें मात्र रजोहरणादि द्रव्यलिंग होने से भाव की अपेक्षा से साधुता नहीं होती है और इससे आगमवचन का विरोध होता है ॥ ४९ ।।
इसलिए आगम में कहा गया है कि साधु के सभी अतिचार संज्वलनकषाय के उदय से होते हैं। अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषायों के उदय से तो चारित्र का
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