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पञ्चाशकप्रकरणम्
[सप्तदश
साधुओं के ऐसे स्वभाव का कारण कालसहावाउ च्चिय एए एवंविहा उ पाएण । होति अओ उ जिणेहिं एएसि इमा कया मेरा ।। ४४ ।। कालस्वभावादेव एते एवंविधास्तु प्रायेण । भवन्ति अतस्तु जिनरेतेषाम् इयं कृता मर्यादा ।। ४४ ।।
काल के प्रभाव से ही साधु प्राय: ऐसे (जड़ता आदि) स्वभाव वाले होते हैं। इसलिए जिनेश्वरों ने उनकी स्थित-अस्थित कल्प रूप मर्यादा की है। - यहाँ प्राय: कहने का अभिप्राय यह है कि अधिकांश साधु ऐसे स्वभाव के होते हैं, किन्तु सभी ऐसे नहीं होते हैं। यह बात प्रथम-अन्तिम और मध्यवर्ती -- इन दोनों वर्गों के साधुओं के सम्बन्ध में जाननी चाहिए ।। ४४ ।।
ऋजु-प्राज्ञ का चारित्र योग्य है, ऋजुजड़ आदि का नहीं एवं विहाणवि इहं चरणं दिलृ तिलोगणाहेहिं । जोगाण थिरो भावो जम्हा एएसि सुद्धो उ॥ ४५ ॥ . अथिरो उ होइ इयरो सहकारिवसेण ण उण तं हणइ ।। जलणा जायइ उण्हं वज्जं ण उ चयइ तत्तंपि ।। ४६ ।। इय चरणम्मि ठियाणं होइ अणाभोगभावओ खलणा। ण उ तिव्वसंकिलेसा णऽवेति चारित्तभाकोऽवि ॥ ४७ ।। एवंविधानमपि इह चरणं दृष्टं त्रिलोकनाथैः । योग्यानां स्थिरो भावो यस्मादेतेणां शुद्धस्तु ।। ४५ ।। अस्थिरस्तु भवति इतरः सहकारिवशेन न पुनस्तद्धन्ति । ज्वलनाज्जायते उष्णं वज्रं न तु त्यजति तत्त्वमपि ।। ४६ ।। इति चरणे स्थितानां भवति अनाभोगभावत: स्खलना । न तु तीव्रसंक्लेशात् नापैति चारित्रभावोऽपि ॥ ४७ ।।
ऋजु-जड़ता आदि से युक्त जीवों का भी चारित्र जिनेश्वरों के द्वारा जाना गया है। वे प्रवज्या के योग्य होते हैं, क्योंकि स्थिर और अस्थिर - इन दो प्रकार के भावों में से ऋजु-जड़ जीवों के स्थिर भाव शुद्ध होते हैं ।। ४५ ।।।
अस्थिर (अस्थायी) भाव तथाविध सामग्री से अशुद्ध होता है, किन्तु वह अशुद्ध भाव चारित्र का घात नहीं करता है। जैसे- वज्र अग्रि से गरम होता है, किन्तु अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है। क्योंकि वज्रत्व स्थिर भाव है और उष्णत्व अस्थिर भाव ।। ४६ ।।
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