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सप्तदश ]
स्थितास्थितकल्पविधि पञ्चाशक
प्रथम जिन के साधुओं के चारित्र को कठिनाई से शुद्ध कराया जा सकता है। क्योंकि ऋजु जड़ होने कारण उन साधुओं का अतिचार तब दूर होता है, जब उन्हें विस्तृत उपदेशपूर्वक समस्त हेय सम्बन्धी ज्ञान हो जाये । अन्तिम जिन के साधुओं से भी चारित्र का पालन कठिनाई से करवाया जा सकता है, क्योंकि वे साधु वक्रजड़ता के कारण बहाने बनाकर हेय का आचरण करते हैं। मध्यवर्ती जिनों के साधुओं का चारित्र सुविशोध्य और सुखानुपाल्य है, क्योंकि वे साधु ऋजु -प्राज्ञ होने के कारण उपदेशानुसार चारित्र का पालन करते हैं ।। ४२ ।।
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प्रथम जिन के साधु ऋजु जड़ (अर्थात् सरल और तर्कशक्ति से रहित ) होते हैं। इस विषय में नट का उदाहरण है • कुछ साधु शौच करने गये। रास्ते में विलम्ब हो गया। आचार्य के द्वारा विलम्ब का कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि वे नट का नृत्य देख रहे थे। आचार्य ने भविष्य में नट-नृत्य देखने का निषेध किया। दूसरे दिन फिर विलम्ब हुआ । आचार्य ने जब पुनः विलम्ब का कारण पूछा 'तो उन्होंने बताया कि वे नटी का नृत्य देख रहे थे। आचार्य ने जब उन्हें पहले दिन के निषेध का स्मरण कराया तो वे बोले आपने नट का नृत्य देखने से मना किया था, हम तो नटी का नृत्य देख रहे थे। वस्तुतः नट का नृत्य देखने का निषेध करने का आशय नटी के भी नृत्य देखने का निषेध है।
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अन्तिम जिन के साधु वक्र (कुटिल) और जड़ (मूर्ख) होते हैं, उनके विषय में भी उपर्युक्त नट का दृष्टान्त है। वे साधु शौच को गये। रास्ते में विलम्ब हुआ। आचार्य के द्वारा विलम्ब का कारण पूछने पर उन्होंने कहा हम नट का नृत्य देख रहे थे। आचार्य ने नट-नृत्य देखने का निषेध किया। कालान्तर में पुनः विलम्ब से आने पर आचार्य ने पूछा तो कुटिल होने के कारण उन साधुओं ने उदण्डतापूर्वक जवाब दिया कि वे नटी का नृत्य देख रहे थे। गुरु ने जब अपनी पूर्व आज्ञा का स्मरण कराया कि उन्होंने नृत्य देखने से मना किया था तो वे बोले कि आपने तो केवल नट का नृत्य देखने से मना किया था, हम तो नटी का नृत्य देख रहे थे।
मध्यवर्ती जिनों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं। उनके विषय में भी उपर्युक्त उदाहरण प्रस्तुत है। शौच को गये साधुओं के विलम्ब से आने पर आचार्य ने विलम्ब का कारण पूछा तो उन्होंने बतलाया कि वे नट का नृत्य देख रहे थे। आचार्य ने मना किया। फिर एक बार नटी के नृत्य को देखकर उन्होंने विचार किया कि नटी का भी नृत्य नहीं देखना चाहिए, क्योंकि वह भी राग का उत्पादक है || ४३ ॥
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