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________________ ३०८ पञ्चाशकप्रकरणम् [ सप्तदश दोषासति मध्यमका आसते तु यावत् पूर्वकोटिमपि । इतरथा तु न मासमपि खल्वेवं खलु विदेहजिनकल्पे ।। ४० ॥ मासकल्प की तरह ही पर्युषणाकल्प भी प्रथम एवं अन्तिम और मध्यवर्ती जिनों के साधुओं के भेद से स्थित और अस्थित—इस प्रकार दो तरह का है। पर्युषणा-कल्प में इतनी विशेषता होती है कि इसके जघन्य और उत्कृष्ट - ये दो भेद होते हैं ।। ३८ ।। आषाढ़ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक कुल चार महीने उत्कृष्ट पर्युषणाकल्प है और भाद्रपद शुक्ला पञ्चमी से कार्तिक पूर्णिमा तक कुल सत्तर दिन-रात जघन्य पर्युषणाकल्प है। ये दो भेद स्थविरकल्पियों के लिए होते हैं, जबकि जिनकल्पियों के लिए तो उत्कृष्ट पर्युषणाकल्प ही होता है ।। ३९ ।। मध्यवर्ती जिनों के साधु यदि दोष न लगे तो एक ही क्षेत्र में पूर्व करोड़ वर्षों तक भी रह सकते हैं और दोष लगे तो एक महीना भी नहीं रह सकते हैं। महाविदेह क्षेत्र के साधुओं के लिए भी ये कल्प मध्यवर्ती जिनों के साधुओं की तरह ही होते हैं ।। ४० ॥ कल्पों में स्थित-अस्थित विभाग सकारण हैं एवं कप्पविभागो तइओसहणातओ मुणेयव्वो।। भावत्थजुओ एत्थ उ सव्वत्थवि कारणं एयं ।। ४१ ।। पुरिमाण दुव्विसोज्झो चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो । मज्झिमगाण जिणाणं सुविसोज्झो सुहणुपालो य॥ ४२ ॥ उज्जुजडा पुरिमा खलु णडादिणायाउ होति विण्णेया । वक्कजडा उण चरिमा उजुपण्णा मज्झिमा भणिया ॥ ४३ ।। एवं कल्पविभागः तृतीयौषध ज्ञाततो ज्ञातव्यः । भावार्थयुतोऽत्र तु सर्वत्रापि कारणमेतत् ।। ४१ ॥ पूर्वेषां दुर्विशोध्यः चरमाणां दुरनुपालकः कल्पः । मध्यमकानां जिनानां सुविशोध्यः सुखानुपाल्यश्च ।। ४२ ।। ऋजुजडा: पूर्वाः खलु नटादिज्ञाताद् भवन्ति विज्ञेयाः । वक्रजडाः पुनश्चरमा ऋजुप्रज्ञाः मध्यमा भणिताः ।। ४३ ।। यहाँ दस कल्पों का स्थित और अस्थित - यह जो विभाग है, वह तीसरी औषधि के न्याय से भावार्थयुक्त (सकारण) है, यादृच्छिक नहीं है। इसके निम्न कारण हैं ।। ४१ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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