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सप्तदश ]
देकर उपकार नहीं किया जा सकता है।
४. देशविज्ञान विविध देशों का लौकिक और लोकोत्तर आचार
स्थितास्थितकल्पविधि पञ्चाशक
व्यवहार का ज्ञान नहीं हो सकता है।
५. आज्ञाराधन
आगम में मासकल्प के अतिरिक्त विहार नहीं कहा गया है, अतः इसका पालन करने से आगम-वचन का पालन होता है ।। ३६ ।।
कालदोष है।
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मासकल्प यदि द्रव्यतः न हो सके तो भावतः अवश्य करना चाहिए कालादिदोसओ पुण ण दव्वओ एस कीरई णियमा ।
काव्वो
संथारग - वच्चयाईहिं ॥ ३७ ॥
क्षेत्रदोष
द्रव्यदोष
भावदोष
भावेण कालादिदोषतः पुनर्न द्रव्यत भावेन तु कर्तव्यः
काल, क्षेत्र, द्रव्य और भाव के दोष से यदि द्रव्यतः (बाह्य रूप से) मासकल्प न हो सके तो शयनभूमि, मकान, गली आदि का परिवर्तन करके भाव से तो इसका पालन अवश्य करना चाहिए।
कालदोष - दुष्काल आदि के कारण भिक्षा मिलना दुर्लभ हो तो यह
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एषः क्रियते नियमात् । संस्तारक - व्यत्ययादिभिः ।। ३७ ।।
संयम के अनुकूल क्षेत्र न मिले तो वह क्षेत्रदोष है।
शरीर के अनुकूल आहारादि न मिले तो वह द्रव्यदोष है। अस्वस्थता, ज्ञानादि की हानि आदि भावदोष हैं ।। ३७ ।।
पर्युषणाकल्प का विवरण
पज्जोसवणाकप्पोऽपेवं पुरिमेयराइभेएणं । उक्को सेयर भेओ सो णवरं होइ विणेओ ॥ ३८ ॥ चाउम्मासुकोसो सत्तरि राइंदिया जहण्णो उ । थेराण जिणाणं पुण णियमा उक्कोसओ चेव ।। ३९ ।। दोसासइ मज्झिमगा अच्छंति उ जाव पुव्वकोडीवि । इहरा उ ण मासंपि हु एवं खु विदेहजिणकप्पे ॥ ४० ॥ पर्युषणाकल्पोऽप्येवं पूर्वेतरादि उत्कर्षेतर भेदः सः केवलं भवति
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भेदेन ।
विज्ञेयः ॥ ३८ ॥
चातुर्मासोत्कर्षः सप्ततिं रात्रिं - दिवा जघन्यस्तु । पुनर्नियमाद् उत्कर्षकश्चैव ॥ ३९ ॥
स्थविराणां जिनानां
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