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________________ ३०६ पञ्चाशकप्रकरणम् [ सप्तदश प्रतिक्रमण एवं सुबह-शाम षडावश्यक रूप प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए, क्योंकि प्रथम जिन के साधु ऋजु-जड़ और अन्तिम जिन के साधु वक्र-जड़ होते हैं ।। ३३ ।। मध्य के जिनों के साधुओं को यदि किसी तरह दोष लग जाये तो वे तुरन्त प्रतिक्रमण करके अतिचार की विशुद्धि कर लेते हैं। जिस प्रकार रोग होने के तुरन्त बाद चिकित्सा करें तो विशेष लाभ होता है ।। ३४ ।। मासकल्प का विवेचन पुरिमेयरतित्थयराण मासकप्पो ठिओ विणिद्दिट्ठो । मज्झिमगाण जिणाणं अट्ठियओ एस विण्णेओ ।। ३५ ।। पूर्वेतरतीर्थङ्कराणां मासकल्पः स्थितो विनिर्दिष्टः । मध्यमकानां जिनानाम् अस्थित एषो विज्ञेयः ।। ३५ ।। मासकल्प अर्थात् चातुर्मास के अतिरिक्त एक स्थान पर एक महीने से अधिक नहीं रहने का आचार। प्रथम और अन्तिम जिनों के साधुओं के लिए मासकल्प स्थित है अर्थात् वे एक स्थान पर एक मास से अधिक नहीं रह सकते हैं, अन्यथा दोष लगता है। जबकि मध्यवर्ती जिनों के साधुओं के लिए मासकल्प अस्थित है अर्थात् वे एक महीने से अधिक भी एक स्थान पर रह सकते हैं, उन्हें दोष नहीं लगता है, क्योंकि वे ऋजु-प्राज्ञ होते हैं ।। ३५ ।। प्रथम और अन्तिम जिनों के साधुओं द्वारा मासकल्प का पालन न करने पर दोष पडिबंधो लहुयत्तं ण जणुवयारो ण देसविण्णाणं । णाणाराहणमेए दोसा अविहार - पक्खम्मि ।। ३६ ।। प्रतिबन्धो लघुकत्वं न जनोपकारः न देशविज्ञानम् । नाज्ञाराधनमेते दोषा अविहारपक्षे ।। ३६ ॥ प्रथम और अन्तिम जिनों के के साधु मासकल्प का पालन न करें तो प्रतिबद्धता और लघुता होती है तथा जनोपकार, देशविज्ञान और आज्ञाराधन - ये तीन नहीं होते हैं। ये दोष निम्न प्रकार से हैं - १. प्रतिबद्धता - एक ही स्थान पर एक महीने से अधिक रहने पर शय्यातर आदि के प्रति रागभाव उत्पन्न होता है। २. लघुता-ये साधु अपना घर छोड़कर दूसरे घर में आसक्त हैं - ऐसी शङ्का से लोक में लघुता होती है। __३. जनोपकार --- भिन्न-भिन्न प्रान्तों में रहने वाले लोगों का उपदेशादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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