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सप्तदश ]
स्थितास्थितकल्पविधि पञ्चाशक
है। शासननिन्दा होने से ऐसे कर्म बँधते हैं, जिनसे बोधिलाभ नहीं होता है और संसार की वृद्धि होती है ।। २५ ।।
व्रत का स्वरूप
पंचवतो खलु धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य मज्झिमगाण जिणाणं चउव्वतो होति णो अपरिग्गहियाए इत्थीए जेण होइ ता तव्विरइए च्चिय अबंभविरइत्ति दुहऽवि दुविहोऽवि ठिओ एसो आजम्ममेव इय वइभेया' दुविहो एगविहो चेव पञ्चव्रतः खलु धर्मः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च मध्यमकानां जिनानां चतुर्व्रतः भवति नो अपरिगृहीतायाः स्त्रिया येन भवति तत् तद्वत्यैव अब्रह्मविरतिरिति द्वयोरपि द्विविधोऽपि स्थित एष आजन्मैव इति वाग्भेदाद् द्विविध एकविध एव
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जिणस्स । विणेओ ।। २६ ।। परिभोगो ।
पाणं ।। २७ ॥
विणणेओ ।
परिभोगः ।
प्रज्ञानाम् ।। २७ ॥ विज्ञेयः ।
तत्त्वेन ।। २८ ।।
प्रथम और अन्तिम जिनों के साधुओं के लिए पाँच व्रतों वाला चारित्रधर्म होता है और शेष जिनों के साधुओं के लिए चार व्रतों (चातुर्याम) का चारित्रधर्म होता है ।। २६ ।।
१. 'वयभेया' इति पाठान्तरम् ।
तत् ।। २८ ।।
क्योंकि मध्यवर्ती जिनों के साधु प्राज्ञ होने के कारण स्त्री को परिग्रह मानकर उसे स्वीकार नहीं करने के कारण उसका भोग भी नहीं करते हैं तथा परिग्रह विरमण से ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं ।। २७ ।।
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जिनस्य ।
विज्ञेयः ।। २६ ।।
प्रथम- अन्तिम और मध्यवर्ती जिनों के साधुओं के लिए पाँच महाव्रत रूप और चार महाव्रत रूप इस प्रकार के दो कल्प स्थित हैं, क्योंकि दोनों में त्याज्य पाप एक समान हैं। इस कल्प का पालन आजीवन होता है। पंचमहाव्रत और चार महाव्रत रूप वचनभेद से दो प्रकार का होने पर भी यह कल्प परमार्थ से एक प्रकार का ही है ।। २८ ।।
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ज्येष्ठ का स्वरूप
उवठावणाएँ जेट्ठो विण्णेओ पुरिमपच्छिमजिणाणं ।
पव्वज्जाए उ तहा मज्झिमगाणं णिरतियारो ।। २९ ।।
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