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कृतिकर्म का स्वरूप
कितिकम्मति यदुविहं अब्भुट्ठाणं तहेव समणेहि य समणीहि य जहारिहं होति
पञ्चाशकप्रकरणम्
कृतिकर्म च द्विविधम् अभ्युत्थानं तथैव श्रमणैश्च श्रमणीभिश्च यथार्हं भवति
[ सप्तदश
वंदणगं ।
कायव्वं ।। २३ ।।
अभ्युत्थान और वन्दन के भेद से कृतिकर्म दो प्रकार का होता है । साधुओं और साध्वियों के द्वारा अपनी चारित्रपर्याय रूप योग्यता अर्थात् वरिष्ठता के अनुसार दोनों प्रकार का कृतिकर्म करना चाहिए। अभ्युत्थान का अर्थ है आचार्य आदि के आने पर सम्मान स्वरूप खड़े हो जाना और वन्दन का अर्थ है - द्वादशावर्त्त से वन्दना करना आदि ।। २३ ।।
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वन्दनकम् ।
कर्तव्यम् || २३ ||
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तित्थेसु ॥ २४ ॥
पर्यायवृद्ध को प्राप्त साध्वी को छोटे साधु को वन्दन करना चाहिए सव्वाहिं संजईहिं कितिकम्मं संजयाण कायव्वं । पुरिसोत्तमोत्त धम्मो सव्वजिणाणंपि सर्वाभिः संयतीभिः कृतिकर्म संयतानां कर्तव्यम् । पुरुषोत्तम इति धर्मः सर्वजिनानामपि तीर्थेषु ।। २४ ।। अल्प संयम - पर्यायवाली या अधिक संयम-पर्यायवाली साध्वियों को
आज के नवदीक्षित साधु की भी वन्दना करनी चाहिए, क्योंकि सभी जिनों के तीर्थों में धर्म को पुरुष ने प्रवर्तित किया है, इसलिए पुरुष प्रधान है। साधु यदि साध्वियों की वन्दना करे तो तुच्छता के कारण स्त्री को गर्व होगा। गर्व वाली साध्वी साधु का अनादर करेगी इस प्रकार साध्वियों को अनेक प्रकार के दोष लगते हैं ।। २४ ।।
संयम पर्याय में ज्येष्ठता के अनुसार वन्दन न करने से दोष एयस्स अकरणंमी माणो तह णीयकम्मबंधोत्ति । पवयणखिंसाऽयाणग अबोहि भववुड्डि अरिहंमि ।। २५ ।। एतस्य अकरणे मानः तथा नीचकर्मबन्ध इति । प्रवचननिन्दा अज्ञायका अबोधिः भववृद्धिर ।। २५ ।
वन्दनीय की वन्दना नहीं करने पर अहंकार उत्पन्न होता है। अंहकार से
नीच गोत्र कर्म का बन्ध होता है। इस जिन-प्रवचन में विनय का उपदेश नहीं दिया गया है इस प्रकार जिन-शासन की निन्दा होती है अथवा ये साधु अज्ञानी हैं, लोकरूढ़ि का पालन भी नहीं करते हैं – ऐसी भी जिन शासन की निन्दा होती
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