SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थितास्थितकल्पविधि पञ्चाशक शय्यातर का अर्थ होता है साधुओं के उपाश्रय (निवास स्थल) का मालिक। शय्यातर का जो पिण्ड है, वह शय्यातरपिण्ड कहा जाता है। अशन, पान, खादिम और स्वादिम - ये चार, वस्त्र, पात्र, रजोहरण और कम्बल ये चार; सुई, अस्त्र, नाखून काटने का साधन और कान का मैल निकालने का साधन ये चार इस प्रकार शय्यातरपिण्ड कुल बारह प्रकार का होता है। सप्तदश ] प्रथम, अन्तिम, मध्यवर्ती और महाविदेह क्षेत्र के सभी जिनों के साधुओं के लिए शय्यातरपिण्ड ग्राह्य नहीं होता है। शय्यातर के मकान में रहने वाले या दूसरे के मकान में रहने वाले सभी साधुओं के लिए शय्यातर पिण्ड ग्राह्य नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से महान् दोष लगता है ।। १७ ॥ शय्यातरपिण्ड लेने में दोष तित्थंकर - पडिकुट्ठो अण्णायं उग्गमोवि य ण सुज्झे । अविमुत्ति यऽलाघवया दुल्लहसेज्जा विउच्छेओ ॥ १८ ॥ तीर्थङ्कर - प्रतिक्रुष्टोऽज्ञातम् उद्गमोऽपि च न शुध्यति । अविमुक्तिश्च अलाघवता दुर्लभशय्या व्यवच्छेदः ।। १८ ।। अज्ञातभिक्षा का अपालन, उद्गम सम्बन्धी दोषों की सम्भावना, अविमुक्ति, अलाघवता, दुर्लभशय्या और व्यवच्छेद इन दोषों के कारण तीर्थङ्करों ने शय्यातरपिण्ड का निषेध किया है। इन दोषों का विस्तृत विवेचन इस प्रकार है १. अज्ञातभिक्षा का अपालन साधु के द्वारा बिना किसी परिचय के भोजन लाकर करना अपरिचित भिक्षा है। शय्यातर के यहाँ रहने के कारण साधु का शय्यातर से अतिपरिचय हो जाता है, इसलिए यदि शय्यातर के यहाँ से भोजन लाये तो वह परिचित भिक्षा (ज्ञात भिक्षा) हो जाती है और अज्ञात भिक्षा का पालन नहीं हो पाता है। - ― Jain Education International २९९ २. उद्गम की अशुद्धि उद्गम सम्बन्धी दोषों के सेवन से भोजन अशुद्ध बनता है। अनेक साधुओं के कारण भोजन, पानी आदि कार्यों के लिए बार-बार जाने से शय्यातर उद्गम दोषों में से कोई दोष लगता है। साधु हमारे यहाँ ठहरे हैं ऐसा जानकर उनके लिए भोजन बना सकता है । ― - ३. अविमुक्ति आहारादि की लोलुपता के कारण साधु द्वारा शय्यातर के घर बार-बार जाना ( घर न छोड़ना) अविमुक्ति दोष है। इससे उसे साधु की लोभवृत्ति का परिचय मिलता है । ४. अलाघवता (भार) For Private & Personal Use Only विशिष्ट आहार लेने से शरीर का पुष्ट होकर www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy