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पञ्चाशकप्रकरणम्
औद्देशिक कल्प का स्वरूप
उद्देसियं तु कम्मं एत्थं उद्दिस्स कीरते तंति । एत्थवि इमो विभागो णेओ संघादवेक्खा || १४ || संघादुद्देसेणं ओघाईहिँ समणमाइ अहिकिच्च । कडमिह सव्वेसिं चिय ण कप्पई पुरिमचरिमाणं ।। १५ ।। मज्झिमगाणं तु इदं कडं जमुद्दिस्स तस्स चेवत्ति । नो कप्पइ सेसाण उ कप्पइ तं एस मेरत्ति ।। १६ ।। औद्देशिकं तु कर्म अत्र उद्दिश्य क्रियते तदिति । अत्रापि अयं विभागो ज्ञेयः संघाद्युद्देशेन ओघादिभिः श्रमणादि अधिकृत्य । कृतमिह सर्वेषामेव न कल्पते पूर्व- चरमाणाम् ।। १५ ।। मध्यमकानां तु इदं कृतं यमुद्दिश्य तस्य चैवेति । नो कल्पते शेषाणां तु कल्पते तदेषा मर्यादेति ।। १६ ।।
संघाद्यपेक्षया ।। १४ ।।
[ सप्तदश
स्थित- अस्थित कल्प के सन्दर्भ में साधु के निमित्त से जो कार्य किया जाये वह औद्देशिक कहा जाता है। औद्देशिक के विषय में प्रथम और अन्तिम जिनों के संघ में श्रमणों के लिए ग्राह्य-अग्राह्य का विभाग निम्न प्रकार है ॥ १४ ॥
सामान्य रूप से संघ (साधु-साध्वी के समुदाय) के लिए अथवा किसी वर्ग विशेष के साधु, साध्वी के लिए अथवा किसी एक साधु के निमित्त बनाया गया औद्देशिक आहार प्रथम और अन्तिम जिनों के सभी साधुओं के लिए ग्रहण करने योग्य नहीं है' ।। १५ ।।
मध्यवर्ती जिनों (२२ जिनों) के साधुओं में जिस संघादि के निमित्त बना हो वह उस संघादि के द्वारा ग्राह्य नहीं है, शेष साधुओं द्वारा ग्राह्य है, क्योंकि वे साधु ऋजु और प्रबुद्ध होते हैं। लोग भी ऋजु और प्राज्ञ होते हैं, इसलिए जिनेश्वरों ने उनके लिए यह मर्यादा रखी है ।। १६ ॥
शय्यातर पिण्ड का स्वरूप
सेज्जायरोत्ति भण्णति आलयसामी उ तस्स जो
पिंडो । सो सव्वेसि ण कप्पति पगगुरुदोभावेण ॥ १७ ॥ शय्यातर इति भण्यते आलयस्वामी तु तस्य यः पिण्डः । सः सर्वेषां न कल्पते प्रसंगगुरुदोषभावेन ॥ १७ ॥ १. विशेष विवरण के लिए बृहत्कल्पसूत्र भाष्य की ५३४४-५३४७ गाथाएँ देखें
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