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________________ स्थितास्थितकल्पविधि पञ्चाशक द्विविधा अत्र अचेला: सदसत्सु भवति तीर्थङ्करा असच्चेला : सदचेला भवेयुः सप्तदश ] आचेलक्यो धर्मः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य । मध्यमकानां जिनानां भवति सचेलोऽचलश्च ।। १२ ।। ――― यहाँ अचेलक दो प्रकार के होते हैं। प्रथम वस्त्र न हो तो अचेलक और द्वितीय अल्प वस्त्र होने पर भी अचलेक । तीर्थङ्कर इन्द्रप्रदत्त देवदूष्य के अभाव में ही अचेलक कहे जाते हैं, जब कि शेष साधु-साध्वी अल्प वस्त्र होने पर भी अचेलक कहे जाते हैं ।। ११ ।। सवस्त्र भी निर्वस्त्र क्यों अमहद्धण भिन्नेहि य आचेलक्कमिह होइ लोगागम- णीतीए अचेलगत्तं तु विज्ञेयाः । प्रथम और अन्तिम जिनों के साधुओं का आचेलक्य (नग्नता) कल्प होता है। वे साधु सवस्त्र होने पर भी मात्र श्वेत खण्डित वस्त्र धारण करने के कारण व्यवहार में निर्वस्त्र ही कहे जाते हैं, क्योंकि उनके वस्त्र जैसे होने चाहिए वैसे नहीं होते हैं। मध्यवर्ती जिनों के साधुओं के सलेचक अथवा अचेलक धर्म होता है। वे ऋजु और बुद्धिमान् होते हैं, इसलिए वे बहुमूल्य और अल्पमूल्य के वस्त्र पहन सकते हैं। जब वे बहुमूल्य कपड़े पहनें तब सचेल और जब अल्पमूल्य के कपड़े पहनें तब अचेल होते हैं। प्रथम जिन के साधु ऋजु और जड़ तथा अन्तिम जिन के साधु जड़ और वक्र होते हैं, इसलिए वे बहुमूल्य वस्त्र नहीं पहन सकते हैं। वे श्वेत खण्डित वस्त्र ही पहन सकते हैं। इसलिए उनका चारित्रधर्म अचेलक है ।। १२ ।। अमहाधनैर्भिन्नैश्च लोकागम-नीत्या अचेलकत्वं तु आचेलक्यमिह भवति Jain Education International शेषा: ।। ११ ।। २९७ - वत्थेहिं । पच्चयो || १३ | वस्त्रैः । प्रत्ययतः ।। १३ ॥ अल्पमूल्य के फटे कपड़ों के होने पर अचेल ही कहा जाता है। यह बात लोकव्यवहार और आगमन्याय इन दोनों से सिद्ध होती है। लोक में जीर्णवस्त्र को 'वस्त्र नहीं हैं' ऐसा माना जाता है, क्योंकि वह विशिष्ट कार्य का साधक नहीं होता है। आगमवचन से भी श्वेत जीर्णवस्त्र होने पर उसे वस्त्रहीन ही समझा जाता है ।। १३ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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