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________________ २९६ पञ्चाशकप्रकरणम् [ सप्तदश आचेलक्यौदेशिक - प्रतिक्रमण - राजपिण्डमासेषु । पर्युषणाकल्पे च अस्थितकल्पो ज्ञातव्यः ।। ८ ।। मध्यम जिन अर्थात् बाईस जिनों के साधुओं को आगे कहे जाने वाले छह कल्प अस्थित अर्थात् अनियत हैं, क्योंकि वे छह कल्प सदा आचरणीय नहीं होते हैं अर्थात् वे साधु इन छह कल्पों का कभी पालन करते हैं और कभी नहीं भी करते हैं ।। ७ ।। आचेलक्य, औद्देशिक, प्रतिक्रमण, राजपिण्ड, मासकल्प और पर्युषणाकल्प - ये छह मध्यमवर्ती जिनों के साधुओं के लिए अस्थित हैं ।। ८ ।। मध्यम जिन के साधुओं के चार स्थितकल्पों का विवेचन सेसेसुं ठियकप्पो' मज्झिमगाणंपि होइ विण्णेओ । चउसु ठिता छसु अठिता एत्तो च्चिय भणियमेयं तु ।। ९ ॥ सिज्जायरपिंडंमि य चाउज्जामे य पुरिसजेटे य । कितिकम्मस्स य करणे ठियकप्पो मज्झिमाणंपि ।। १० ।। शेषेषु स्थितकल्पो मध्यमकानामपि भवति विज्ञेयः । चतुर्षु स्थिता: षट्सु अस्थिता अत एव भणितमेतत्तु ।। ९ ।। शय्यातरपिण्डे च चातुर्यामे च पुरुषज्येष्ठे च । कृतिकर्मणश्च करणे स्थितकल्पो मध्यमानामपि ।। १० ।। शय्यातरपिण्ड आदि शेष चार कल्प मध्यकालीन जिनों के साधुओं के लिए भी स्थित ही होते हैं, इसीलिए आगम में ‘चउसु ठिता छसु अठिता' मध्यवर्ती जिनों के साधु चार कल्पों में स्थित हैं और छ: कल्पों में अस्थित हैं, ऐसा कहा गया है ।। ९ ॥ शय्यातरपिण्ड का त्याग, चार महाव्रतों (चातुर्याम) का पालन, पुरुष की ज्येष्ठता और कृति-कर्म अर्थात् संयम-पर्याय के क्रम से वंदन-व्यवहार - ये चार मध्य के जिनों के साधुओं के लिए भी स्थितकल्प हैं ।। १० ।। आचेलक्य का स्वरूप दुविहा एत्थ अचेला संतासंतेसु होइ विण्णेया । तित्थगरऽसंतचेला संताऽचेला भवे सेसा ।। ११ ।। आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमगाणं जिणाणं होइ सचेलो अचेलो य ।। १२ ॥ १. 'सेसेसु ट्ठियकप्पो' इति पाठान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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