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सप्तदश]
स्थितास्थितकल्पविधि पञ्चाशक
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एवमेषः कल्पो दोषाभावेऽपि क्रियमाणस्तु । सुन्दरभावात् खलु चारित्ररसायनं ज्ञेयः ।। ५ ।।
दोष न लगा हो तो भी तीसरी औषधि की तरह स्थितकल्प का पालन किया जाये (स्थितकल्प का आचरण किया जाये) तो शुभभाव रूप होने के कारण उसे चारित्ररूपी शरीर के लिए रसायन के समान पोषक जानना चाहिए ॥ ५ ॥
कल्प के दस प्रकार आचेलक्कु - देसिय-सिज्जायर-रायपिंड- किइकम्मे । वय-जे?-पडिक्कमणे मास-पज्जोसवण-कप्पो ।। ६ ।। आचेलक्यौदेशिक - शय्यातर - राजपिण्ड- कृतिकर्मणि । व्रत-ज्येष्ठ-प्रतिक्रमणे
मास-पर्युषणकल्प: ।। ६ ।। १. आचेलक्य - वस्त्राभाव, २. औद्देशिक - उद्देश्य (संकल्प) से तैयार हुआ (आधाकर्म), ३. शय्यातर पिण्ड - जो वसति से संसार सागर को तरे, वह शय्यातर है । अर्थात् साधु को मकान देने वाला और शय्यातर का पिण्ड (भिक्षा) शय्यातर पिण्ड, ४. राजपिण्ड - राजा की भिक्षा, ५. कृतिकर्म - वन्दन, ६. व्रत - महाव्रत, ७. ज्येष्ठ - रत्नाधिक, ८. प्रतिक्रमण - आवश्यक कर्म, ९. मासकल्प - एक स्थान पर एक महीने तक रहना, १०. पर्युषणाकल्प - सर्वथा एक स्थान पर रहना, ये दस प्रकार के कल्प हैं।
सामान्यतया ये दस कल्प विभिन्न तीर्थंकरों के साधुओं की योग्यता के अनुसार स्थित (नियत) और अस्थित (अनियत) होने के कारण ओघकल्प कहलाते हैं। विशेष रूप से ये दस कल्प प्रथम और अन्तिम जिनों (तीर्थङ्करों) के शासन-काल के साधुओं के लिए स्थितकल्प होते हैं और मध्यवर्ती बाईस जिनों (तीर्थङ्करों) के काल के साधुओं के लिए इनमें से छह कल्प अस्थित होते हैं और चार कल्प स्थित होते हैं ।। ६ ।।
अस्थित कल्पों का प्रतिपादन छसु अट्ठिओ उ कप्पो एत्तो मज्झिमजिणाण विण्णेओ । णो सययसेवणिज्जो अणिच्चमेरासरूवोत्ति ।। ७ ।। आचेलक्कुद्देसिय- पडिक्कमण- रायपिंडमासेसु । पज्जुसणाकप्पम्मि य . अट्ठियकप्पो मुणेयव्वो ।। ८ ॥ षट्सु अस्थितस्तु कल्पोऽतः मध्यमजिनानां विज्ञेयः । नो सततं सेवनीयोऽनित्य-मर्यादास्वरूप इति ।। ७ ।।
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