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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ सप्तदश
स्थितकल्प अर्थात् नित्यमर्यादा ।। २ ।।
स्थितकल्प का नित्य आचरण करने का कारण ततिओसहकप्पोऽयं जम्हा एगंततो उ अविरुद्धो । सययंपि कज्जमाणो आणाओ चेव एतेसिं ।। ३ ॥ तृतीयौषधकल्पोऽयं यस्माद् एकान्ततस्तु अविरुद्धः । सततमपि क्रियमाण आज्ञात एव एतेषाम् ।। ३ ।।
यह स्थितकल्प तृतीय औषधि के समान होने के कारण प्रथम और अन्तिम जिनों के साधुओं को उनका पालन हमेशा करने की आज्ञा है। इसलिए सदैव उनका पालन करना यह उनके लिए एकान्ततः हितकर है, क्योंकि वह शुभ है। प्रथम और अन्तिम जिनों (तीर्थङ्करों) के काल के साधुओं के लिए ही इन दस कल्पों का अनुसरण हमेशा करने की आज्ञा का कारण – सरलता, जड़ता, वक्रता आदि स्वभावगत विशेषताएँ हैं जिनका वर्णन आगे किया जायेगा ।। ३ ।।
तीन प्रकार की औषधि वाहिमवणेइ भावे कुणइ अभावे तयं तु पढमंति । बितियमवणेति न कुणति तइयं तु रसायणं होति ।। ४ ।। व्याधिमपनयति भावे करोति अभावे तकं तु प्रथममिति । द्वितीयमपनयति न करोति तृतीयं तु रसायनं भवति ॥ ४ ॥
किसी राजा को अपने पुत्र पर अगाध प्रेम था। उसने अपने पुत्र को सदा के लिए रोगमुक्त बनाने के लिए आयुर्वेद में कुशल अनेक वैद्यों को बुलाकर उसका उपाय पूछा और उस हेतु औषधि देने को कहा। वैद्य राजा की आज्ञा के अनुसार अपनी-अपनी दवा बनाकर लाये। राजा के द्वारा दवाओं का गुण पूछने पर उन वैद्यों ने क्रमश: इस प्रकार कहा - पहले प्रकार की औषधि यदि रोग हो तो उसे दूर करती है और न हो तो नया उत्पन्न करती है। दूसरे प्रकार की औषधि रोग हो तो उसे दूर करती है, किन्तु रोग न हो तो नया रोग उत्पन्न नहीं करती है। तीसरे प्रकार की औषधि रोग हो तो उसे दूर करती है, शरीर को पुष्ट करती है
और रोग न हो तो नया रोग उत्पन्न नहीं करती है, अपितु रसायन (पोषक तत्त्व) का कार्य करती है ॥ ४ ॥
उक्त दृष्टान्त की योजना एवं एसो कप्पो दोसाभावेऽवि कज्जमाणो उ। सुंदरभावाओ खलु चरित्तरसायणं णेओ ॥ ५ ॥
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