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________________ १७ स्थितास्थितकल्पविधि पञ्चाशक सोलहवें पञ्चाशक में प्रायश्चित्त का विवेचन किया गया है। स्थिति आदि कल्प में स्थित साधु प्रायश्चित्त को स्वीकार करते हैं और उसे पूर्ण करते हैं। इसलिए कल्प का स्वरूप कहने हेतु सर्वप्रथम मङ्गलाचरण करते हैं - मङ्गलाचरण णमिऊण महावीरं ठियादिकप्पं समासओ वोच्छं । पुरिमेयरमज्झिमजिणविभागतो वयणनीतीए ।। १ ।। नत्वा महावीरं स्थितादिकल्पं समासतो वक्ष्ये । पूर्वेतर-मध्यम - जिनविभागतो वचननीत्या ।। १ ।। भगवान् महावीर को प्रणाम करके प्रथम एवं अन्तिम और बीच के बाइस जिनों के विभाग से स्थित-अस्थित कल्प (आचार) का बृहत्कल्प आदि सूत्रों के अनुसार संक्षेप में निरूपण करूँगा। यहाँ मध्यवर्ती जिनों के उल्लेख के उपलक्षण से महाविदेह क्षेत्र के जिनों का उल्लेख भी समझ लेना चाहिए, क्योंकि ग्रंथकार ने इसी पञ्चाशक की ४०वीं गाथा में - ‘एवं खु विदेहजिणकप्पे' अर्थात् बाईस जिनों के साधुओं के आचार के अनुसार महाविदेह क्षेत्र के जिनों के साधुओं का आचार होता है- ऐसा कहा है ।। १ ।। स्थितिकल्प का स्वरूप दसहोहओ उ कप्पो एस उ पुरिमेयराण' ठियकप्पो । सययासेवणभावाठियकप्पो णिच्चमज्जाया ॥ २ ॥ दशधौघतस्तु कल्प एषस्तु पूर्वेतराणां स्थितकल्पः । सततासेवनभावात् स्थितकल्पो नित्यमर्यादा ।। २ ।। सामान्यत: आचेलक्य आदि के भेद से कल्प दस प्रकार का होता है। ये कल्प प्रथम और अन्तिम जिनों (तीर्थङ्करों के काल) के साधुओं के लिए स्थित (नियत) कहे जाते हैं, क्योंकि उन्हें इनका आचरण हमेशा करना होता है। १. 'पुरिमेयरायण' इति पाठान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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