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________________ २९२ पञ्चाशकप्रकरणम् उपर्युक्त का समर्थन सव्वावि य पव्वज्जा पायच्छित्तं भवंतरकडाणं । पावाणं कम्माणं ता एत्थं णत्थि दोसोत्ति ॥ ४८ ॥ सर्वापि च प्रव्रज्या प्रायश्चित्तं भवान्तरकृतानाम् । पापानां कर्मणां तदत्र नास्ति दोष इति ॥ ४८ ॥ प्रायश्चित ही नहीं, सम्पूर्ण प्रव्रज्या ही भवान्तर में किये गये पाप कर्मों के प्रायश्चित्त रूप है ( उनकी शुद्धि का कारण है)। प्रव्रज्या रूप प्रायश्चित्त आगमोक्त अनुष्ठान है, अतः प्रायश्चित्त को आगमोक्त अनुष्ठान मानने में कोई दोष नहीं है ।। ४८ ।। [ षोडश अच्छी तरह से किये गये प्रायश्चित्त का लक्षण चिण्णस्स णवरि लिंगं इमस्स पाएणमकरणया दोसस्स तहा अण्णे णियमं परिसुद्धए चीर्णस्य केवलं लिंङ्गमस्य प्रायेण अकरणं तस्य । दोषस्य तथा अन्ये नियमं परिशुद्धके ब्रुवन्ति ।। ४९ ।। जिस दोष का प्रायश्चित्त किया गया हो, प्रायः उसे फिर से न किया जाये, अच्छी तरह से किये गये प्रायश्चित्त का लक्षण है। प्रायः शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है कि सम्भव है कि जिसने शुद्ध प्रायश्चित्त किया है, वह भी फिर से वही दोष कर ले। दूसरे कुछ आचार्यों का कहना है कि दोष की विशुद्धि के लिए आजीवन उस दोष को पुनः नहीं करने का नियम ही शुद्ध प्रायश्चित्त है ।। ४९ ।। उपर्युक्त मतान्तर का समर्थन णिच्छयणएण संजमठाणापातंमि जुज्जति तह चेव पयट्टाणं भवविरहपराण निश्चयनयेन संयमस्थानापाते युज्यते तथा चैव प्रवृत्तानां भवविरहपराणां साधूनाम् ॥ ५० ॥ निश्चयनय से संयमस्थान से पतित नहीं होने वाले और भवविरह अर्थात् नोक्ष के लिए तत्पर साधुओं की अपेक्षा से अन्य आचार्यों का मत भी स्वीकार्य है ॥ ५० ॥ Jain Education International तस्स । बिंति ।। ४९ ।। ॥ इति प्रायश्चित्तविधिर्नाम षोडशं पञ्चाशकम् ॥ For Private & Personal Use Only इमपि । साहूणं ॥ ५० ॥ इदमपि । www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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