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षोडश ]
प्रायश्चित्तविधि पञ्चाशक
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__ छद्मस्थ को सभी अवस्थाओं में कर्मबन्ध होता है। कर्मबन्ध के द्वारा उसकी संयम की विराधना जानी जा सकती है (क्योंकि विराधना के बिना कर्मबन्ध नहीं होता है)। छद्मस्थ अर्थात् संसार में स्थित वीतरागी के भी द्रव्य से सूक्ष्म विराधना होती है - यह शास्त्र संगत है। क्योंकि छद्मस्थ वीतरागी को चारों मनोयोग आदि होते हैं - ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। इसलिए उन्हें विराधना की शुद्धि करना आवश्यक है। आलोचनादि प्रायश्चित्त सहित आगमोक्त अनुष्ठान कर कर्म के अनुबन्ध का छेदन करने वाले निर्दोष होते हैं ।। ४५ ।।
इस विषय में मतान्तर और निराकरण विहिताणट्टाणत्तं तस्स वि एवंति ता कहं एयं । पच्छित्तं ? णणु ! भण्णति समयंमि तहा विहाणाओ ।। ४६ ।। विहितानुष्ठानत्वं तस्यापि एवमिति तत्कथमेतत् । प्रायश्चित्तं ननु ! भण्यते समये तथा विधानात् ।। ४६ ।।
आगमोक्त अनुष्ठान और आलोचनादि प्रायश्चित्त कर्म अनुबन्ध का छेदन करने वाले होते हैं - यदि ऐसा मानें तो आलोचनादि प्रायश्चित्त भी आगमोक्त अनुष्ठान बन जाते हैं तो फिर उन्हें प्रायश्चित्त क्यों कहा गया ? भिक्षाचर्यादि आगमोक्त अनुष्ठान हैं, इसलिए विशोध्य हैं, विशोधक नहीं। उसी प्रकार प्रायश्चित्त भी आगमोक्त अनुष्ठान होने से विशोध्य होगा, विशोधक नहीं । जबकि प्रायश्चित्त को विशोधक (शुद्धि का कारण) कहा गया है – ऐसा क्यों ?
उत्तर : शास्त्रों में आलोचनादि को प्रायश्चित्त (विशोधक) के रूप में प्रस्तुत किया गया है और इसीलिए वे प्रायश्चित्त कहे जाते हैं ।। ४६ ।।
प्रायश्चित्त आगमोक्त है - इसकी सिद्धि विहियाणुट्ठाणं चिय पायच्छित्तं तदण्णहा ण भवे । समए अभिहाणाओ इट्ठत्थपसाहगं णियमा ।। ४७ ।। विहितानुष्ठानमेव प्रायश्चित्तं तदन्यथा न भवेत् । समये अभिधानाद् इष्टार्थप्रसाधकं . नियमात् ।। ४७ ।।
प्रायश्चित्त भी आगमोक्त अनुष्ठान ही है, क्योंकि आगम में भिक्षाचर्यादि अनुष्ठानों की तरह प्रायश्चित्त का भी विधान है। इसलिए प्रायश्चित्त अन्यथा (अन्य अनुष्ठानों से भिन्न) नहीं हो सकता है। यदि प्रायश्चित्त आगमोक्त अनुष्ठान न हो तो वह शुद्धि रूप इष्टार्थ का साधक नहीं बन सकता है। प्रायश्चित्त इष्टार्थ का साधक है, अतः आगमोक्त अनुष्ठान है ।। ४७ ।।
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