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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ सप्तदश
भारी हो जाना अलाघवता है। उपाधि आदि के मिलने से भी भार बढ़ जाता है। जैसे अरे ! इन्हें मकान
पुन: उस गृहस्थ पर उन साधुओं का भार बढ़ जाता है तो दिया ही, अब इनके भोजन आदि की भी व्यवस्था करो। ५. दुर्लभशय्या
भय उत्पन्न होने से साधुओं को आश्रय स्थल नहीं मिलता है।
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६. व्यवच्छेद अधिक मकान होंगे तो साधुओं को देने पड़ेंगे, इस भय से अधिक मकान न रखना आवास का व्यवच्छेद रूप दोष है। साथ ही गृहस्थ इन्हें आश्रय स्थल देने पर भोजन भी देना होगा इस भय से आश्रय देना भी बन्द कर देता है, यह व्यवच्छेद है ।। १८ ।।
जो आश्रय देता है, उसे आहार देना पड़ेगा - ऐसा
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अन्य मत
अहियगहणस्स |
बेंति
भावत्थं ।। १९ ।
पडिबंधनिरागरणं केई अण्णे तस्साउंटणमाणं एत्थऽवरे प्रतिबन्धनिराकरणं केचिद् अन्ये अगृहीतग्रहणस्य । तस्याकुण्टनमाज्ञामत्र अपरे ब्रुवन्ति भावार्थम् ।। १९ ।। कुछ आचार्यों का मत है कि साधु और शय्यातर के उपकार्यउपकारक भाव के कारण स्नेह न हो यह शय्यातरपिण्ड के निषेध का भावार्थ है। कुछ आचार्य कहते हैं कि यदि साधु शय्यातरपिण्ड न ले तो शय्यातर को लगेगा कि ये साधु निःस्पृह हैं, इसलिए पूज्य हैं, ऐसा भाव उत्पन्न होगा। यह शय्यातरपिण्ड - निषेध का भावार्थ है। कुछ आचार्यों का कहना है कि यह भगवान् की आज्ञा है, यही ही शय्यातरपिण्ड के निषेध का भावार्थ है ।। १९ ।।
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राजा का स्वरूप
पिंडोत्ति ।
मुदितादिगुणो राया अट्ठविहो तस्स होति पुरिमेयराणमेसो वाघयादीहिँ पडिकुट्टो || २० || मुदितादिगुणो राजा अष्टविधः तस्य भवति पिण्ड इति ।
पूर्वेतराणामेष व्याघातादिभिः
प्रतिक्रुष्टः ।। २० ।। जो मुदित (शुद्धवंश में उत्पन्न) और अभिषिक्त (जिसका राज्याभिषेक किया गया हो ) है, वह राजा है। राजपिण्ड आठ प्रकार का होता है।" प्रथम और अन्तिम जिनों के साधुओं के लिए यह राजपिण्ड वर्जित है, क्योंकि इससे व्याघात आदि दोष लगते हैं ॥ २० ॥
१. राजपिण्ड के आठ भेद इसी पञ्चाशक की बाइसवीं गाथा में आगे कहे गये हैं।
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