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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ षोडश
गणतम् ।
आगम में 'तवसा तु निकाइयाणंपि' (तप से तो निकाचित कर्मों का भी नाश होता है) - जो यह कहा गया है, वह भी इस प्रकार के विशिष्ट शुभभाव से अपूर्वकरण और श्रेणि-आरोहण के द्वारा ही घटित होता है। यह विशिष्ट शुभभाव रूप प्रायश्चित्त निकाचित कर्मों के भी क्षय का कारण होने से सामान्य अशुभकर्मों के क्षय और उनके अनुबन्ध के विच्छेद का कारण तो है ही, ऐसा विचार करना चाहिए। निकाचित कर्म का अर्थ है कर्मों का निबिड़ (सघन) रूप से बन्धन ।। ३५ ।। आगमोक्त अनुष्ठानों में प्रायश्चित्त योग्य नहीं है - किसी के इस
मत का प्रतिपादन विहियाणुट्ठाणंमी एत्थं आलोयणादि जं भणियं । तं कह पायच्छित्तं दोसाभावेण तस्सत्ति ।। ३६ ।। अह तंपि सदोसं चिय तस्स विहाणं तु कह णु समयम्मि । न य णो पायच्छित्तं इमंपि तह कित्तणाओ उ ।। ३७ ।। विहितानुष्ठानेऽत्र आलोचनादि यद्भणितम् । तत्कथं प्रायश्चित्तं दोषाभावेन तस्येति ।। ३६ ।। अथ तदपि सदोषमेव तस्य विधानं तु कथं नु समये । न च नो प्रायश्चित्तं इदमपि तथा कीर्तनात्तु ।। ३७ ।।
आगमोक्त भिक्षाचर्या आदि अनुष्ठानों में आलोचना, कायोत्सर्ग आदि जो प्रायश्चित्त आगम में कहे गये हैं वे यहाँ घटित नहीं होते हैं, क्योंकि आगमोक्त भिक्षाचर्या आदि अनुष्ठान निर्दोष होते हैं और सदोष अनुष्ठान में ही प्रायश्चित्त होता है निर्दोष अनुष्ठान में नहीं। तब फिर आगमोक्त शुद्धचर्या करने वाले साधु के लिए प्रतिदिन आलोचनादि प्रायश्चित्त करने का विधान क्यों किया गया ?
अब आप कहेंगे कि आगमोक्त अनुष्ठान भी सदोष (अतिचार सहित) होता है तो फिर शास्त्र में उनका उपदेश क्यों किया गया है ? क्योंकि शास्त्रों में सदोष उपदेश विहित नहीं है, तो सम्भवतः यह कहा जा सकता है कि - आलोचनादि प्रायश्चित्त ही नहीं होते हैं, किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि आगम में आलोचनादि प्रायश्चित्त के रूप में वर्णित हैं ।। ३७ ।।
उपर्युक्त मत का निराकरण भण्णइ पायच्छित्तं विहियाणुट्ठाणगोयरं चेयं । तत्थवि य किंतु सुहमा विराहणा अस्थि तीएँ इमं ।। ३८ ।।
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