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षोडश]
प्रायश्चित्तविधि पञ्चाशक
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भण्यते प्रायश्चित्तं विहितानुष्ठानगोचरं चैतत् । तत्रापि च किन्तु सूक्ष्मा विराधना अस्ति तस्या इदम् ।। ३८ ।।
पुनः उपर्युक्त शङ्का का समाधान करते हुए कहा गया है कि यहाँ प्रायश्चित्त घटित होता है और यह प्रायश्चित्त आगमोक्त अनुष्ठान सम्बन्धी है। आगमोक्त क्रिया में जो सूक्ष्म विराधना होती है उसकी शुद्धि के लिए आलोचना आदि प्रायश्चित्त हैं । वस्तुत: आगमोक्त अनुष्ठान का प्रायश्चित्त नहीं किया जाता है, अपितु उस अनुष्ठान को करते समय जो सूक्ष्म विराधना होती है, उसकी शुद्धि के लिए आलोचनादि प्रायश्चित्त किये जाते हैं ।। ३८ ॥
उपयोग वाले को सूक्ष्म विराधना क्यों होती है - इसका समाधान
सव्वावत्थासु जओ पायं बंधो भवत्थजीवाणं । भणितो विचित्तभेदो पुव्वायरिया तहा चाहु ।। ३९ ।। सर्वावस्थासु यतः प्रायो बन्धः भवस्थजीवानाम् । भणितो विचित्रभेदः पूर्वाचार्याः तथा चाहुः ।। ३९ ।।
आगम में संसारी जीवों की सरागावस्था, वीतरागावस्था आदि सभी अवस्थाओं में प्रायः अनेक प्रकार का बन्ध बताया गया है। पुन: यही बात पूर्वाचार्यों ने भी कही है।
विशेष : अयोगावस्था में कर्मबन्ध नहीं होता है, इसलिए इस गाथा में प्राय: शब्द का प्रयोग किया गया है ।। ३९ ।।
पूर्वाचार्यों द्वारा कथित अनेक प्रकार के बन्ध सत्तविहबंधगा होति पाणिणो आउवज्जियाणं तु । तह सुहुमसंपराया छव्विहबंधा विणिद्दिट्ठा ।। ४० ।। मोहाउयवज्जाणं पगडीणं ते उ बंधगा भणिता । उवसंतखीणमोहा केवलिणो एगविहबंधा ।। ४१ ।। ते पुण दुसमयट्ठितियस्स बंधगण पुण संपरायस्स । सेलेसीपडिवण्णा अबंधया होति विण्णेया ।। ४२ ॥ अपमत्तसंजयाणं बंधठिती होति अट्ठ उ मुहुत्ता । उक्कोसेण जहण्णा भिण्णमुहुत्तं तु विण्णेया ।। ४३ ॥ जे उ पमत्ताणाउट्टियाएँ बंधंति तेसि बंधठिती । संवच्छराणि अट्ठ उ उक्कोसियरा मुहुत्तंतो ।। ४४ ।।
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