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षोडश ]
प्रायश्चित्तविधि पञ्चाशक
संवेगाइसयजोगतो
चेव ।
एतेण पगारेणं अहिगय-विसिटुभावो तहा तहा होति णियमेणं ।। ३३ ।। तदेतस्मिन् प्रयत्नः कर्तव्योऽप्रमत्ततया तु ।
संवेगविशेषयोगेन || ३२ ।।
स्मृतिबलयोगेन एतेन प्रकारेण
तथा
संवेगातिशययोगतश्चैव ।
अधिगत-विशिष्टभावः तथा तथा भवति नियमेन ॥ ३३ ॥
विशिष्ट शुभभाव ही शुद्धि का कारण है। विशिष्ट शुभभाव उत्पन्न करने के लिए अप्रमत्तता, छोटे-बड़े अतिचारों का स्मरण और अतिशय भवभय तीनों से युक्त होकर प्रयत्न करना चाहिए ।। ३२ ।।
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इस प्रकार अप्रमत्तता, स्मरण सामर्थ्य और अतिशय भवभय के योग से ही विशुद्धि हेतु प्रकृष्ट शुभाध्यवसाय प्रत्येक जीव की शक्ति के अनुसार अवश्य उत्पन्न होता है ।। ३३ ॥
विशिष्ट शुभभाव रूप प्रायश्चित्त से लाभ
तत्तो तव्विगमो खलु अणुबंधावणयणं व होज्जाहि ।
जं इय अपुव्वकरणं जायति सेढी य एवं निकाइयाणवि कम्माणं भाणियमेत्थ तंपिय जुज्जइ एवं तु भावियव्वं अओ ततः तद्विगमः खलु अनुबन्धापनयनं वा यदिति अपूर्वकरणं जायते श्रेणिश्च एवं निकाचितानामपि कर्मणां भणितमत्र तदपि च युज्यत एवं तु भावयितव्यमत एतत् ।। ३५ ।।
क्षपणमिति ।
विशिष्ट शुभभाव के द्वारा अंशुभभाव से बँधे हुए कर्मों का नाश होता है। अथवा अशुभभाव से बँधे हुये कर्मों के अनुबन्ध का विच्छेद होता है, क्योंकि शुभभाव से अपूर्वकरण नामक आठवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है और कर्मों की निर्जरा से उपशमश्रेणि और फिर क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ होकर अन्त में जीव अनुत्तर सुख रूप निर्वाण को प्राप्त करता है।
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खवणंति ।
विहियफला || ३४ ॥
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एवं ।। ३५ ।।
भवेत् ।
विहितफला ।। ३४ ।।
विशेष : अपूर्वकरण गुणस्थान में कभी न हुए हों ऐसे विशिष्ट शुभभाव होते हैं, जिससे दुष्टकर्मों की स्थिति का घात आदि होता है। शास्त्रों में उपशम श्रेणि का फल अनुत्तर देवलोक का सुख और क्षपक श्रेणि का फल मोक्ष बतलाया गया है ।। ३४ ।।
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