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________________ २८६ पञ्चाशकप्रकरणम् [ षोडश शुभभावात् तद्विगमः सोऽपि च आज्ञानुगः नियोगेन । प्रायश्चित्तम् एषः सम्यग् विशिष्टक एव विज्ञेयः ।। २९ ।। प्रायश्चित्त के विषय में वास्तविकता इस प्रकार है – अशुभ अध्यवसाय से अशुभकर्म का बन्ध होता है। यह अशुभ अध्यवसाय जिनाज्ञा का भंग करने से होता है ।। २८ ।। शुभभाव से अशुभकर्म का नाश होता है। शुभभाव जिनाज्ञा का पालन करने से अवश्य ही होता है अर्थात् जो भाव जिनाज्ञा के अनुसार है वही शुभ है। यह विशिष्ट शुभभाव ही यथार्थ प्रायश्चित्त है ।। २९ ।। विशिष्ट शुभभाव का स्वरूप असुहज्झवसाणाओ जो सुहभावो विसेसओ अहिगो । सो इह होति विसिट्ठो ण ओहतो समयणीतीए ।। ३० ।। इहरा बंभादीणं आवस्सयकरणतो उ ओहेणं । पच्छित्तंति विसुद्धी ततो ण दोसो समयसिद्धो ।। ३१ ॥ अशुभाध्यवसानाद् यः शुभभावो विशेषतोऽधिकः । स इह भवति विशिष्टः न ओघतः समयनीत्या ।। ३० ।। इतरथा ब्रह्मादीनाम् आवश्यककरणतस्त ओघेन । प्रायश्चित्तमिति विशुद्धिः ततो न दोषः समयसिद्ध: ।। ३१ ।। पूर्वकृत अशुभ अध्यवसाय से बँधे हुए कर्मों की निर्जरा के लिये प्रायश्चित्त स्वरूप जितना शुभभाव अपेक्षित है, वही शुभभाव यहाँ आगमानुसार विशेष शुभभाव है (और वही शुभभाव पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करने में समर्थ होता है), सामान्य रूप से किया गया शुभभाव सम्पूर्ण बद्ध कर्मों का नाश करने में समर्थ नहीं है ॥ ३० ॥ क्योंकि किसी भी तरह का सामान्य शुभभाव प्रायश्चित्त होता तो ब्राह्मी, सुन्दरी आदि द्वारा सामान्य रूप से किये गये आवश्यककरण (प्रतिक्रमण) रूप शुभभाव से ही प्रायश्चित्त हो गया होता अर्थात् उनके कर्मों का नाश हो गया होता और उन्हें शास्त्र प्रसिद्ध स्त्रीत्व की प्राप्ति रूप दोष नहीं लगता। इसलिए किसी भी तरह का सामान्य शुभभाव पूर्ण शुद्धि का कारण नहीं होता है ।। ३१ ।। विशिष्ट शुभभाव उत्पन्न करने के तीन कारण ता एयंमि पयत्तो कायव्वो अप्पमत्तयाए उ । सतिबलजोगेण तहा संवेगविसेसजोगेण ।। ३२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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