________________
प्रायश्चित्तविधि पञ्चाशक
श्रुत निशीथ, कल्प, व्यवहार आदि प्रायश्चित्त सम्बन्धी श्रुतग्रन्थों के आधार पर प्रायश्चित्त देना श्रुत-व्यवहार है।
षोडश ]
आज्ञा एक गीतार्थ दूसरे स्थान पर स्थित गीतार्थ के पास अपने दोषों की आलोचना के लिए यदि स्वयं वहाँ न जा सके तो किसी अगीतार्थ को सांकेतिक भाषा में अपना अतिचार कहकर अन्यत्र स्थित गीतार्थ के पास जाने की आज्ञा करे। वह आचार्य भी गूढभाषा में कथित अतिचारों को सुनकर स्वयं वहाँ जाये या अन्य गीतार्थ को वहाँ भेजे या संदेशवाहक अगीतार्थ को सांकेतिक भाषा में प्रायश्चित्त सम्बन्धी निर्देश दे वह आज्ञा-व्यवहार है।
धारणा - गीतार्थ गुरु के द्वारा शिष्य की प्रतिसेवना को जानकर जिस अतिचार का जो प्रायश्चित्त अनेक बार दिया गया हो उसे शिष्य याद रखकर वैसी परिस्थिति में उसी प्रकार का प्रायश्चित्त देना धारणा - व्यवहार है।
जीत गीतार्थ संविग्नों के द्वारा प्रवर्तित शुद्ध व्यवहार | पूर्वाचार्य जिन अपराधों में बड़े तप रूप प्रायश्चित्त देते थे उन अपराधों में वर्तमान में व्यक्ति की शारीरिक शक्ति आदि में कमी होने से किसी छोटे तप के माध्यम से प्रायश्चित्त देना जीत - व्यवहार है || २६ ॥
२८५
-
प्रतिसेवना, व्यक्ति, परिस्थिति और समय के भेद से उपर्युक्त पाँच प्रकार के व्यवहार के अनुसार आगम में अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गये हैं। उन्हें आगम से जान लेना चाहिए।
--
प्रतिसेवना अर्थात् अपराध होने के आकुट्टिका, दर्प, प्रमाद और कल्प ये चार हेतुगत भेद हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये चार परिस्थितिगत भेद हैं। पुरुष अर्थात् व्यक्ति के आचार्य, उपाध्याय, वृषभ ( प्रवर्तक), भिक्षु और क्षुल्लक ये पाँच भेद हैं। एक बार, दो बार, तीन बार इस प्रकार बार-बार दोषों का सेवन करने वालों के अनेक भेद हैं । अर्थात् प्रायश्चित्त के अनेक भेद हैं। इसलिए इस सम्बन्ध में अन्य आचार्यों के मत भी असंगत नहीं हैं ।। २७ ।।
प्रायश्चित्त के विषय में परमार्थ
एयं च एत्थ तत्तं असुहज्झवसाणओ हवति बंधो । आणाविराहणाणुगमेयंपि य होति सुभावा तव्विगमो सोऽवि य आणाणुगो पच्छित्तमेस सम्मं विसिट्ठओ चेव एतच्चात्र तत्त्वम् अशुभाध्यवसानतो भवति आज्ञाविराधनानुगम् इदमपि च भवति
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
—
दट्ठव्वं ।। २८ ।।
णिओगेण । विणेओ ।। २९ ।
बन्धः ।
द्रष्टव्यम् ।। २८ ॥
www.jainelibrary.org