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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ षोडश
प्रवचन का उपघात करने आदि से इस भव में और अन्य भव में चारित्र के अयोग्य होते हैं, वे पाराञ्चिक कहलाते हैं ।। २४ ॥
विशेष : मनि हत्या अथवा श्रमणी के साथ सम्भोग आदि स्वलिंगभेद (मुनि जीवन का विनाश) है और जिनप्रतिमा अथवा चैत्य का विनाश चैत्यभेद है।
उपर्युक्त मतान्तर का समर्थन आसय-विचित्तयाए किलिट्ठयाए तहेव कम्माणं । अत्थस्स संभवातो णेयंपि असंगयं चेव ।। २५ ।। आशयविचित्रतया क्लिष्टतया तथैव कर्मणाम् । अर्थस्य सम्भवात् नेदमपि असङ्गतं चैव ।। २५ ॥
परिणामों की विचित्रता से अथवा मोहनीय आदि कर्मों का निरुपक्रम बन्ध होने से इस भव में और पर भव में चारित्र की प्राप्ति की अयोग्यता हो सकती है, इसलिए अन्य आचार्यों का मत भी असंगत नहीं ही है, उचित ही है।
विशेष : यहाँ परिणामों की विचित्रता से मतान्तर का समर्थन किया गया है।
प्रायश्चित्त की विचित्रता से मतान्तर का समर्थन आगममाई य जतो ववहारो पंचहा विणिट्ठिो । आगम सुय आणा धारणा य जीए य पंचमए ॥ २६ ॥ एयाणुसारतो खलु विचित्तमेयमिह वणियं समए । आसेवणादिभेदा तं पुण सुत्ताउ णायव्वं ।। २७ ।। आगमादिश्च यतो व्यवहारः पञ्चधा विनिर्दिष्टः । आगमः श्रुतम् आज्ञा धारणा च जीतं च पञ्चमकः ।। २६ ।। एतदनुसारतः खलु विचित्रमेतदिह वर्णितं समये । आसेवनादिभेदात् तत् पुनः सूत्रात् ज्ञातव्यम् ।। २७ ।।
आगम में आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत – ये पाँच प्रकार के व्यवहार कहे गये हैं। यहाँ व्यवहार से तात्पर्य है - प्रायश्चित्त देने की रीति।
आगम- जिससे अर्थ जाना जाता है वह आगम है। केवलज्ञानी, मनः पर्ययज्ञानी, चौदह, दस अथवा नौ पूर्व के ज्ञाता आचार्यों के वचन - ये पाँच आगम हैं। आगम के आधार पर प्रायश्चित्त देने की विधि को आगम-व्यवहार कहा जाता है।
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