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षोडश ]
प्रायश्चित्तविधि पञ्चाशक
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अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का स्वरूप साहम्मिगादितेयादितो तहा चरणविगमसंकेसे। णोचियतवेऽकयम्मी ठविज्जति वएसु अणवट्ठो।। २२ ।। साधर्मिकादिस्तेयादितः तथा चरणविममसंक्लेशे। नोचिततपसिऽकृते स्थाप्येते व्रतेषु अनवस्थाप्य: ।। २२ ।।
आगम में अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य दोष के सम्बन्ध में जो कहा गया है उसके अनुसार साधर्मिक अथवा अन्य किसी व्यक्ति की उत्तम वस्तुओं की चोरी, हस्तताडन (किसी को हाथ से या पैर से मारना) आदि करने पर चारित्राभाव जनक दुष्ट अध्यवसाय होने से जब तक उचित तप पूर्ण न करे तब तक जिसे महाव्रत न दिये जायें - वह अनवस्थाप्य है। प्रायश्चित्त और अनवस्थाप्य साधु में अभेद होने के कारण अनवस्थाप्य साधु का प्रायश्चित्त भी उपचार से अनवस्थाप्य है ।। २२ ।।
पारांचिक प्रायश्चित्त का स्वरूप अण्णोऽण्णमूढ-दुट्ठातिकरणतो तिव्वसंकिलेसंमि । तवसाऽतियारपारं अंचति दिक्खिज्जइ ततो य ।। २३ ।। अन्योऽन्य-मूढ-दुष्टातिकरणतः तीव्रसंक्लेशे । तपसाऽतिचारपारम् अञ्चति दीक्ष्यते ततश्च ।। २३ ।।
जो साधु अन्योन्यकारकता, मूढता (प्रमत्तता), दुष्टता और तीर्थङ्कर आदि की आशातना करने से तीव्र संक्लेश उत्पन्न होने पर जघन्य से छ: महीना और उत्कृष्ट से बारह वर्ष तक शास्त्रोक्त उपवास आदि तप से अतिचारों को पार कर लेता है अर्थात् सम्पूर्ण अतिचारों से रहित होकर शुद्ध बन जाता है और फिर दीक्षाग्रहण करता है तो वह पाराञ्चिक कहा जाता है। पाराञ्चिक साधु और प्रायश्चित्त में अभेद होने के कारण वह प्रायश्चित्त भी उपचार से पाराञ्चिक कहा जाता है ।। २३ ।।
पाराञ्चिक के स्वरूप में मतान्तर अण्णेसिं पुण तब्भवतदण्णवेक्खाएँ जे अजोगत्ति । चरणस्स ते इमे खलु सलिंगचितिभेदमादीहिं ।। २४ ।। अन्येषां पुनस्तद्भव-तदन्यापेक्षया येऽयोग्या इति । चरणस्य त इमे खलु स्वलिङ्गचिति भेदादिभिः ।। २४ ।। दूसरे कुछ आचार्यों के मतानुसार जो जीव स्वलिंगभेद, चैत्यभेद, जिन
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