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________________ २८२ पञ्चाशकप्रकरणम् [ षोडश को काटने के समान दीक्षापर्याय के छेद रूप भावचिकित्सा से दूर किया जाता है ।। १८ ।। छेद से अपराधशुद्धि होने का कारण छिज्जति दूसियभावो तहोमरायणियभावकिरियाए । संवेगादिपभावा सुज्झइ णाता तहाऽऽणाओ ।। १९ ।। छिद्यते दूषितभावः तयाऽवमरालिक भाव क्रियया । संवेगादिप्रभावात् शुद्ध्यति ज्ञाता तथाऽऽज्ञातः ।। १९ ।। दीक्षापर्याय कम करने से (साधु की संयम पर्याय छेदने से) साधु का दूषित अध्यवसाय दूर होता है, क्योंकि दीक्षा पर्याय कम करने से साधु में संवेग, निर्वेद आदि गुण उत्पन्न होते हैं। इन गुणों के परिणाम स्वरूप आप्तोपदेश के पालन से बुद्धिमान साधु शुद्ध होता है ।। १९ ।। . मूल आदि गुणों के वर्णन की प्रतिज्ञा मूलादिसु पुण अहिगय-पुरिसाभावेण नत्थि वणचिंता । एतेसिपि सरूवं वोच्छामि अहाणुपुव्वीए ।। २० ।। मूलादिषु पुनरधिकृत-पुरुषाभावेन नास्ति व्रणचिन्ता । एतेषामपि स्वरूपं वक्ष्यामि यथानुपूर्वि ।। २० ।। आलोचनादि सात प्रायश्चित्तों को व्रण दृष्टान्त से निरूपित किया गया है। मूल, अनवस्थाप्य और पाराञ्चिक प्रायश्चित्त योग्य अपराधों में सम्यक्-चारित्र के अभाव के कारण व्रण के दृष्टान्त की विचारणा नहीं है। मूल आदि प्रायश्चित सम्यक्-चारित्र का सर्वथा अभाव होने पर ही होता है। इसलिए अब मूल आदि प्रायश्चित्त का भी स्वरूप क्रमश: कहूँगा ।। २० ॥ मूलप्रायश्चित्त का स्वरूप पाणातिवातपभितिसु संकप्पकएसु चरणविगमम्मि । आउट्टे परिहारा पुणवयठवणं तु मूलंति ।। २१ ।। प्राणतिपातप्रभृतिषु संकल्पकृतेषु चरणविगमे । आवृत्ते परिहारात् पुनव्रतस्थापनं तु मूलमिति ।। २१ ।। संकल्पपूर्वक किये गये प्राणवध, मृषावाद आदि अपराधों में चारित्रधर्म का अभाव होने पर चारित्र के परिणाम से रहित उस साधु में महाव्रतों की पुनः स्थापना करना 'मूल' नामक प्रायश्चित्त है ।। २१ ।। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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