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षोडश]
प्रायश्चित्तविधि पञ्चाशक
२७९
मा वेअणा उ तो उद्धरित्तु गालिंति सोणिय चउत्थे । रुज्झइ लहुंति चेट्ठा वारिज्जइ पंचमे वणिणो ।। ११ ॥ रोहेइ वणं छटे हितमितभोजी अभुंजमाणो वा । तत्तियमेत्तं छिज्जति सत्तमए पूइमंसादी ।। १२ ।। तहवि य अठायमाणे गोणसखइयादि रप्पुए वावि । कीरति तदंगछेदो सअट्ठितो सेसरक्खट्ठा ।। १३ ।। द्विविधः काये व्रणः तद्भवागन्तुकश्च ज्ञातव्यः । आगन्तुकस्य क्रियते शल्योद्धरणं न इतरस्य ।। ८ ।। तनुको अतीक्ष्णतुण्डो अशोणित: केवलं त्वग्लग्नः । उद्धृत्य अपोह्यते शल्यो न मल्यते व्रणस्तु ।। ९ ।। लग्नोद्धृते द्वितीये मल्यते परमदूरगे शल्ये । उद्धरण-मलन-पूरणे दूरतर गते तु तृतीये ।। १० ।। मा वेदना तु तत उद्धृत्य गालयन्ति शोणितं चतुर्थे । रुध्यते लध्विति चेष्टा वार्यते पञ्चमे व्रणिनः ।। ११ ।। रोहति व्रणं षष्ठे हितमितभोजी अभुंजमानो वा । तावन्मानं छिद्यते सप्तमे पूतिमांसादि ।। १२ ।। तथापि च अतिष्ठति गोनसखादितादौ रप्पुके वापि । क्रियते तदंगच्छेदः सास्थिकः शेषरक्षार्थम् ।। १३ ।।
शरीर में तद्भव और आगन्तुक - ये दो प्रकार के व्रण होते हैं। तद्भव अर्थात् शरीर से उत्पन्न यथा – गाँठ आदि। आगन्तुक अर्थात् काँटा आदि लगने से हुआ व्रण। इसमें आगन्तुक व्रण का शल्योद्धरण किया जाता है। तद्भव व्रण का नहीं ॥ ८ ॥
जो शल्य पतला हो, तीक्ष्ण मुखवाला न हो अर्थात् शरीर के बहुत अन्दर तक न गया हो, खूनवाला न हो, केवल त्वचा से ही लगा हो उस शल्य अर्थात् काँटे आदि को बाहर खींच लिया जाता है। उस व्रण का मर्दन नहीं किया जाता है ॥ ९ ॥
जो शल्य शरीर में प्रथम प्रकार के शल्य से थोड़ा अधिक लगा हो, किन्तु गहरा न हो - ऐसे शल्य के दूसरे प्रकार में काँटे को खींच लिया जाता है
और व्रण का मर्दन किया जाता है, किन्तु उसमें कर्णमल नहीं भरा जाता। इससे थोड़ा अधिक गहराये हुए तीसरे प्रकार के शल्य में शल्योद्धार, व्रणमर्दन और कर्णमलपूरण - ये तीनों किये जाते हैं ।। १० ।।
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