SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८० पञ्चाशकप्रकरणम् [ षोडश चौथे प्रकार के शल्य में वैद्य व्रण में से शल्य निकालकर दर्द नहीं हो, इसके लिए थोड़ा खून निकालते हैं। पाँचवें प्रकार के शल्य में वैद्य शल्योद्धार करके व्रण जल्दी ठीक हो जाये, इसके लिए मरीज को चलने आदि की क्रिया करने से मना करते हैं ।। ११ ।। छठे प्रकार के शल्य में चिकित्साशास्त्र के अनुसार पथ्य और अल्पभोजन दे करके अथवा भोजन का सर्वथा त्याग करवा करके व्रण को सुखाते हैं। सातवें प्रकार के शल्य में शल्योद्धार करने के बाद शल्य से दूषित हुआ मांस, पीब आदि निकाल दिया जाता है ।। १२ ।। सर्प, बिच्छू आदि के डंक मारने से हुए व्रण में या वल्मीक रोग विशेष में उक्त चिकित्सा से व्रण ठीक न हो तो शेष अंगों की रक्षा के लिए दूषित अंग को हड्डी के साथ काट लिया जाता है ।। १३ ।। भावव्रण का स्वरूप मूलुत्तरगुणरूवस्स ताइणो परमचरणपुरिसस्स। अवराहसल्लपभवो भाववणो होइ णायव्वो।। १४ ।। मूलोत्तरगुणरूपस्य तायिनः परमचरणपुरुषस्य। अपराधशल्यप्रभवो भावव्रणो भवति ज्ञातव्यः ।। १४ ।। मूलगुणों और उत्तरगुणों को धारण करने वाले और संसार-सागर से तारने वाले उत्तम चारित्र अर्थात् सम्यक्-चारित्र के धारी श्रेष्ठ पुरुष (साधु) के पृथ्वी-कायिक आदि जीवों की विराधना रूप अतिचार से जो शल्य उत्पन्न होता है, वही भावव्रण कहलाता है - ऐसा जानना चाहिए ।। १४ ।। भावव्रण को सूक्ष्मता से जानने की आवश्यकता एसो एवंरूवो सविगिच्छो एत्थ होइ विण्णेओ । सम्मं भावाणुगतो णिउणाए जोगिबुद्धीए ।। १५ ।। एष एवंरूप: सचिकित्सोऽत्र भवति विज्ञेयः । सम्यग् भावानुगतो निपुणया योगिबुद्ध्या ।। १५ ।। यहाँ प्रायश्चित्त के प्रसङ्ग में उक्त स्वभाव वाले व्रण को उसकी चिकित्सा विधि सहित जानना योग्य है, क्योंकि अध्यात्म के रहस्य को जानने वाले योगियों की सूक्ष्म बुद्धि से ही उसके रहस्य को अच्छी तरह जाना जा सकता है ।। १५ ।। भावव्रण की चिकित्सा भिक्खायरियादि सुज्झति अइयारो कोइ वियडणाए उ । बितिओ उ असमितो मित्ति कीस ? सहसा अगुत्तो वा ॥ १६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy