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________________ २७८ पञ्चाशकप्रकरणम् [ षोडश दोसस्स जं णिमित्तं होति तगो तस्स सेवणाए उ । ण उ तक्खउत्ति पयडं लोगम्मिवि हंदि एयंति ॥ ६ ॥ शास्त्रार्थबाधनात् प्राय इदं तेन चैव क्रियमाणम् । एतदेव सञ्जायते विज्ञातव्यं बुधजनेन ।। ५ ।। दोषस्य यनिमित्तं भवति तकः तस्य सेवनया तु । न तु तत्क्षय इति प्रकटं लोकेऽपि हंदि एवमिति ।। ६ ॥ शास्त्रोक्त अर्थ की विराधना (शास्त्राज्ञा के भंग) से प्राय: पाप लगता है, इसलिए शास्त्रार्थ भंग करके किया जाने वाला विशुद्धि रूप प्रायश्चित्त पापरूप ही होता है, ऐसा बुद्धिमान् व्यक्ति को जानना चाहिए ।। ५ ।। _ विशेष : अप्रमत्त अवस्था में यदि हिंसा हो जाये तो पाप नहीं लगता है, इसलिए यहाँ प्रायः शब्द का प्रयोग किया गया है। दोष का जो निमित्त होता है उसके सेवन से ही दोष होता है, दोष का नाश नहीं - यह बात लोक में भी रोगादि के दृष्टान्त से प्रसिद्ध है अर्थात् जिस प्रकार रोग के कारणों का सेवन करने से रोग बढ़ता है, उसका नाश नहीं होता है । उसी प्रकार शास्त्रोक्त नियमों की विराधना करने से पाप बढ़ता है, पाप का नाश नहीं होता है।। ६ ॥ प्रायश्चित्त व्रणचिकित्सा तुल्य है दव्ववणाहरणेणं जोजितमेतं विदूहिँ समयंमि । भाववणतिगिच्छाए सम्मति जतो इमं भणितं ।। ७ ।। द्रव्यव्रणाहरणेन योजितमेतद्विद्वद्भिः समये ।। भावव्रणचिकित्सायां सम्यगिति यत इदं भणितम् ।। ७ ।। भद्रबाहु स्वामी ने कायोत्सर्ग नियुक्ति रूप शास्त्र में द्रव्यव्रण के दृष्टान्त से चारित्राचार रूप भावव्रण की चिकित्सा का रूपक प्रस्तुत किया है ।। ७ ॥ भद्रबाहु द्वारा कथित छ: गाथाएँ दुविहो कायंमि वणो तब्भव आगंतुगो य णायव्वो । आगंतुगस्स कीरति सल्लुद्धरणं ण इयरस्स ।। ८ ।। तणुओ अतिक्खतुंडो असोणितो केवलं तयालग्गो । उद्धरिउं अवउज्झइ सल्लो ण मलिज्जइ वणो उ ।। ९ ।। लग्गुद्धियम्मि बीए मलिज्जइ परमदूरगे सल्ले । उद्धरणमलणपूरण दूरयरगए उ तइयम्मि ॥ १० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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