________________
षोडश]
प्रायश्चित्तविधि पञ्चाशक
२७७
५. व्युत्सर्ग -- कायोत्सर्ग करना। ६. तप - कर्मनिर्जरा के लिए सरस भोजन का त्याग आदि तप करना।
७. छेद - तप से अपराध शुद्धि न हो सके तो अहोरात्र-पञ्चक आदि क्रम से दीक्षापर्याय का छेद करना। . ८. मूल - मूल से सम्पूर्ण दीक्षा का छेद करके फिर से महाव्रत देना।
९. अनवस्थाप्य - अधिक दुष्ट परिणामवाला साधु प्रायश्चित्त के रूप में दिया गया तप जब तक न करे तब तक उसे पुन: महाव्रत नहीं देना।
१०. पाराशिक --- प्रायश्चित्त या अपराध की अन्तिम स्थिति अर्थात् जिससे अधिक कोई प्रायश्चित्त या अपराध नहीं हो, वह पाराश्चिक है।
प्रायश्चित्त शब्द की निरुक्ति पावं छिंदति जम्हा पायच्छित्तंति भण्णई तेण । पाएण वावि चित्तं सोहयती तेण पच्छित्तं ॥ ३ ॥ पापं छिनत्ति यस्मात् पापछिदिति भण्यते तेन । प्रायेण वापि चित्तं शोधयति तेन प्रायश्चित्तम् ॥ ३ ॥
जिससे पाप का छेदन होता है वह पापछिद् कहा जाता है (प्राकृत भाषा में पापछिद् शब्द का रूप पायच्छित्त बनता है) अथवा चित्त की जो प्रायः शुद्धि करे वह प्रायश्चित्त कहा जाता है ।। ३ ।।
भाव से प्रायश्चित्त यथार्थ है भव्वस्साणारुइणो संवेगपरस्स वण्णियं एयं । उवउत्तस्स जहत्थं सेसस्स उ दव्वतो णवरं ॥ ४ ॥ भव्यस्याज्ञारुचे: संवेगपरस्य वर्णितमेतत् । उपयुक्तस्य यथार्थं शेषस्य तु द्रव्यत: केवलम् ।। ४ ।।
भव्य, आज्ञारुचि युक्त (आगम में श्रद्धावान्), संविग्न और सभी अपराधों में उपयोग वाले जीव के लिए प्रायश्चित्त यथार्थ है (शुद्धि करने वाला है) और इससे भिन्न शेष जीवों के लिए प्रायश्चित्त केवल द्रव्य से है, क्योंकि वह भावरहित होने के कारण शुद्धि नहीं करने वाला है ॥ ४ ॥
उपर्युक्त विषय का समर्थन सत्थत्थबाहणाओ पायमिणं तेण चेव कीरंतं । एयं चिय संजायति वियाणियव्वं बुहजणेणं ।। ५ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org