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प्रायश्चित्तविधि पञ्चाशक
पन्द्रहवें पञ्चाशक में आलोचना-विधि का विवेचन किया गया है। उक्त विधि से आलोचना करने के बाद उसकी शुद्धि के लिए गुरु प्रायश्चित्त देते हैं। इसलिए अब प्रायश्चित्त प्रकरण प्रारम्भ करने हेतु मङ्गलाचरण करते हैं
मङ्गलाचरण
नमिऊण वद्धमाणं पायच्छित्तं समासतो वोच्छं ।
आलोयणादि दसहा
नत्वा वर्धमानं प्रायश्चित्तं समासतो
गुरूवएसाणुसारेणं ॥ १ ॥ वक्ष्ये ।
आलोचनादि दशधा
गुरूपदेशानुसारेण ॥ १ ॥
भगवान् महावीर को प्रणाम करके आलोचनादि दस प्रकार का प्रायश्चित्त गणधर आदि गुरुभगवंतों के उपदेशानुसार संक्षेप में कहूँगा ॥ १ ॥
विशेष : जिससे प्राय: शुद्धि होती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं | भावपूर्वक किया गया प्रायश्चित्त ही शुद्धि का कारण होता है।
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प्रायश्चित्त के दस प्रकार
चेव ॥ २ ॥
आलोयण पडिक्कमणे मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे । तव छेय मूल अणवट्टया य पारंचिए आलोचना प्रतिक्रमणं मिश्रं विवेकः तथा तपश्छेदः मूलम् अनवस्थाप्यता च प्रायश्चित्त, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पाराञ्चिक ये दस आलोचना के प्रकार हैं ।। २ ।
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३. मिश्र
४. विवेक
१. प्रायश्चित्त अपने दोषों का यथातथ्य गुरु से निवेदन करना । २. प्रतिक्रमण- दोषों के विरुद्ध गमन, अर्थात् दोषों से विमुख होकर गुणों में जाना अर्थात् 'मिथ्या मे दुष्कृतम्' करना ।
आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना । दूषित भोजनादि का त्याग।
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व्युत्सर्गः । पाराञ्चिकमेव ॥ २ ॥ .
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