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पञ्चदश]
आलोचनाविधि पञ्चाशक
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संवेग प्रधान नहीं हैं और जिनाज्ञा में नहीं रहते हैं, उनके लिए यह आलोचना भी विपरीत फलवाली होती है ।। ४९ ।।
उपसंहार लभ्रूण माणुसत्तं दुलहं चइऊण लोगसण्णाओ। लोगुत्तमसण्णाए अविरहियं होति जतितव्वं ।। ५० ।। लब्ध्वा मानुषत्वं दुर्लभं त्यक्त्वा लोकसंज्ञाः । लोकोत्तमसंज्ञायाम् अविरहितं भवति यतितव्यम् ।। ५० ।।
दुर्लभ मनुष्यत्व प्राप्त करके और दुष्कृत्यों के कारणभूत मनोभावों का त्याग करके मुमुक्षुओं की मनोवृत्ति रूप लोकोत्तम-संज्ञा में निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि निर्वाणरूप सुख का यही एकमात्र उपाय है ।। ५० ।।
॥ इति आलोचनाविधिर्नाम पञ्चदशं पञ्चाशकम् ॥
१. 'लध्धूण' इति पाठान्तरम्।
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