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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ पञ्चदश
संसार-सागर से भयभीत होकर भविष्य में इस प्रकार के अपराधों को कभी नहीं करूँगा - ऐसा दृढ़ संकल्प करके आलोचना करनी चाहिए ।। ४६ ।।
___ मायामद से मुक्त बनकर आलोचना करें जह बालो जंपतो कज्जमकज्जं व उज्जुयं भणति । त तह आलोइज्जा मायामय- विप्पमुक्को उ॥ ४७ ॥ यथा बालो जल्पन् कार्यमकार्यं वा ऋजुकं भणति । तं तथा आलोचयेत् मायामद-विप्रमुक्तस्तु ।। ४७ ।।
जिस प्रकार बालक अपनी माता के समक्ष बोलते हए कार्य-अकार्य को छिपाये बिना जैसा होता है वैसा कह देता है, उसी प्रकार साधु को माया और मद से मुक्त होकर अपने अपराध को यथातथ्य गुरु के समक्ष निवेदन कर देना चाहिए, क्योंकि माया और मद से युक्त साधु सम्यग् आलोचना नहीं कर सकता है ।। ४७ ॥
सम्यग आलोचना के लक्षण आलोयणासुदाणे लिंगमिणं बिंति मुणियसमयत्था । पच्छित्तकरणमुचियं' अकरणयं चेव दोसाणं ।। ४८ ।। आलोचनासुदाने लिङ्गमिदं ब्रुवन्ति ज्ञातसमयार्थाः । प्रायश्चित्तकरणमुचितम् अकरणकं चैव दोषाणाम् ।। ४८ ।।
सिद्धान्त के जानने वाले सम्यक् आलोचना का लक्षण इस प्रकार बतलाते हैं - गुरु ने अपराध की शुद्धि हेतु जो दण्ड दिया हो उसे स्वीकार कर यथावत् पूरा करना चाहिए, अर्थात् प्रायश्चित्त करना चाहिए और जिन दोषों की आलोचना की हो, उन दोषों को फिर से नहीं करना चाहिए ॥ ४८ ।।
कैसी आलोचना शुद्ध करने वाली होती ? इय भावपहाणाणं आणाए सुट्ठियाण होति इमं । गुणठाणसुद्धिजणगं सेसं तु विवज्जयफलंति ॥ ४९ ।।। इति भावप्रधानानाम् आज्ञायां सुस्थितानां भवति इदम् । गुणस्थानशुद्धिजनकं शेषं तु विपर्ययफलमिति ।। ४९ ॥
जो संवेगप्रधान हैं, जिनाज्ञा में लीन हैं, उनके लिए यह आलोचनाप्रमत्त-संयत आदि गुणस्थानों में शुद्धि को उत्पन्न करती है । इसके विपरीत जो १. '... मुचितं' इति पाठान्तरम् ।
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